19 अक्तूबर 2010

भारत विश्व की एक महाशक्ति बन सकता है बशर्तें......!!!


मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

भारत विश्व की एक महाशक्ति बन सकता है बशर्तें......!!!

   इन दिनों तमाम पत्र-पत्रिकाओं में लगातार ही भारत के एक महाशक्ति बनने के कयास लगाये जाते हैं,महाशक्ति बन चुके और महाशक्तिमान अमेरिका को चुनौती देते चीन से उसकी तुलना भी की जाती है,मगर भारत की इस महत्वकांक्षा में सबसे बडा रोडा भारत खुद ही है और अगर यह देश अपनी कतिपय किन्तु महत्वपूर्ण खामियों को दूर करने का प्रयास नहीं करेगा तो महाशक्ति बनना तो दूर उसके धूल में मिल जाने की गुंजाईश ही ज्यादा लगती है !!आज हम इन खामियों का विश्लेषन ना भी करते हुए सिर्फ़ उन्हें चिन्हित करने का प्रयास भर करें तो भारत के महाशक्ति बनने की राह में कौन सी बाधाएं हैं,उन्हें जानकर दूर करने का प्रयास किया जा सकता है,मज़ा यह कि ये कमजोरियां इतनी खुल्लमखुल्ला हैं कि उन्हें आंख मूंदकर भी जाना जा सकता है,बशर्ते कि हम अपने भीतर ईमानदारी से झांकने को तैयार हों !!  
                पहला,भारत के राजनेताओं में देश के प्रति ममत्व का अभाव तथा दूरदर्शिता की कमी--विगत कई बरसों से यह देखा जा रहा है, तरह-तरह की खिचडी सरकारों ने अपने असुरक्षा-बोध के कारण देश के खजाने को निर्ममतापुर्वक तथा निहायत ही बेशर्मीपुर्वक ऐसा लूटा है,जिसकी की कहीं और कोई मिसाल ही नहीं मिलती तथा अपने इसी असुरक्षाबोध के कारण उन्होने अपने शासन के दौरान धन कमाने(कमाने नहीं बल्कि लूट्पाट करने)के बाद बचे-खुचे समय में भी बजाय शासन करने के एक-दूसरे की टांग-खिंचाई ही की है,सिर्फ़ विरोध के लिए विरोध...निन्दा के निन्दा ही जैसे उनका एकमात्र मकसद रह गया प्रतीत होता है.ऐसे में देश के लगभग सभी राज्यों की प्रशासनिक व्यवस्था प्रायश: चुल्हे में जा गिरी है,और आर्थिक व्यवस्था पर तो जैसे घून ही लगा जा रहा है,हर कोई बस अपना-अपना हिस्सा बांटने के लिए सत्ता में भागीदार बन रहा है और इसीलिए हर कोई हर किसी को अपना हिस्सा खाने में मददगार बनकर अपना हिस्सा सुरक्षित करने भर में आत्मरत है,तो फिर ऐसे देश,जिसकी सभी व्यवस्थाओं का जहां उपरवाला ही मालिक है,के महाशक्ति बनने की कामना या स्वप्न एक हंसी-ठठ्ठे से ज्यादा और कुछ नहीं लगता....!!
                दूसरा ,भारत के व्यापारी वर्ग की भयंकर आत्मरति भरी बनियावृत्ति --भारत का व्यापारी वर्ग,चाहे वो किसी भी जात-वर्ग या धर्म-विशेष का ही क्यों ना हो,उसकी वृत्ति आज भी प्राचीन काल की तरह आत्मलीन-आत्मरत और स्वार्थ से ओत-प्रोत रहते हुए अपने हितों की रक्षा करने हेतु शासक-वर्ग की चिरौरी करना और उसके तलवे चाटना भर है.इस स्थिति में आज इतना फ़र्क अवश्य आ गया है कि इस ग्लोबल युग में बडे-बडे उद्योगपति सत्ता की वैसी चिरौरी नहीं करते,बल्कि सरकारों को अपने राज्य और देश के विकास के लिए उन उद्योगपतियों की राह में आगे चलकर फूल बिछाने पडते हैं,मगर इससे इस स्थिति में अलबत्ता कोई फ़र्क आ गया हो,नहीं दिखाई देता...क्योंकि आज के दौर में सत्ता और बडे व्यापारी और उद्योगपति एक-दूसरे के पूरक बन चुके हैं,दोनों ही एक-दूसरे का खूब दोहन करते हैं और इसका परिणाम कभी नंदी-ग्राम,सिंगूर तो कभी उडीसा-झारखंड के विभिन्न हिस्सों में पैदा हुई हिंसा के रूप में दिखाई देता है,इसका अर्थ यह भी है कि भारत का सत्ता-तंत्र भारत के विकास में यहां के आम लोगों को विश्वास में लेने का हिमायती नहीं है और यदि ऐसा है तो भी आने वाले दिनों में तरह-तरह के विरोध के स्वर की अनुगूंज और हिंसा का वातावरण दिख पडने वाला है,जिसके मूल में होगा इन्हीं बनिया लोगों का क्षूद्र स्वार्थ और लालच,जिसे देश के विकास का जामा पहना कर आम जनता का हक छीनते जा रहे हैं ये कतिपय लोग !!
                 तीसरा,विकास की किसी समुचित अवधारणा का नितान्त अभाव-- भारत के विकास में किसी भी भारतीय में विकास का कोई खाका,कोई मानचित्र,कोई रास्ता,कोई सोच या किसी भी किस्म की समुचित अवधारणा का सर्वथा अभाव है.या यूं कहूं कि भारत कैसा हो ,ऐसा कोई सपना भारत के किसी नागरिक के मन में पलता हो,ऐसा दिखाई नहीं देता,या कम-से-कम इसके जिम्मेवार नेताओं में तो बिल्कुल भी नहीं,और मिलाजुला कर कोई एक खाका खींच पाने को कोई व्यक्ति,समूह तत्पर हो,ऐसा भी देखने में नहीं आता !बस विकास-विकास का रट्टा चल रहा है हमारे चारों तरफ़,कि इसको बुला लो,उसको बुला लो...लेकिन यह तय नहीं है कि कैसे,कितना कितने समय में और क्या करना करना है,यह कोई नहीं जानता कि कितने प्रतिशत खेती करनी है,उस खेती के लिए उसके साधनों का क्या-कितना-कैसा विकास करना है और विकास की इस अवधारणा के चलते जो अहम चीज़ पीछे छूट जाती है वो यह है कि इसका कोई अनुमान,आकलन या सरसरी तौर पर लिया गया कोई आंकडा तक नहीं है कि जिस विकास के लिए उपजाऊ खेतों को यानि कि किसानों की रोजी-रोटी के एकमात्र साधन यानि कि [अभी के आकलन के अनुसार "सेज" की खातिर (प्रस्तावित जमीन)ली जाने वाली याकि छीनी जाने वाली जमीन के ऊपर प्रतिवर्ष दस लाख टन अनाज उपजाया जाता है !!]को छीनकर उसके बदले किए जाने वाले विकास का क्या मूल्य है,क्या गुणवत्ता है,क्या आयु है और क्या पर्यावरणीय नुकसान या फ़ायदे हैं,उनसे किनको और किस हद तक फ़ायदा है तथा देश के लिए,इसकी सामाजिक,आर्थिक और पारम्परिक स्थितियों के मद्देनज़र कौन-सा विकास सचमुच ही फ़ायदेमन्द है !!
                  चौथा,इस अदूरदर्शिता के कारण घट सकने वाले संकट को देख पाने में असमर्थता-- अपनी इस अदूरदर्शिता की वजह से पहले आओ-पहले पाओ की तर्ज़ पर बुलाए और निमंत्रित किए जाने वाले लोगों की बन आयी है और आने वाले लोगों की बांछे सरकारों की ऐसी तत्परता देख कर वैसे ही खिल-खिल जाती है,और वो काम को अमली जामा तो बाद में पहनाएं या कि पहनाएं कि ना पहनाएं,मगर तरह की शर्तें और डिमांड पहले धर देते हैं कि पहले ये दे दो-वो दे दो,ये फ़्री करो-वो फ़्री करो,इतनी जमीन चाहिए,इतनी बिजली,इतना पानी इतने सस्ते मज़दूर,इतनी दूर या पास और इस तरह का बाज़ार और "सेल" की गारंटी यानि इतनी सरकारी खरीदी की गारंटी....वल्लाह क्या बात है...सुभानल्लाह क्या बात है और ले देकर वही बात कि ये खान दे दो,वो खान दे दो...फ़ैक्टरी के नाम और स्थानीय लोगों को रोजगार देने के नाम पर ली गयी तमाम रियायतों के बावजूद होता ठीक इसका उलटा ही है,यानि कि कानून को धत्ता बताना,नियमों की धज्जी उडाना,कायदे-कानूनों को ताक पर धर देना...स्थानीय लोगों को रोजगार तो क्या,कभी फ़ैक्टरी के दर्शन तक नसीब नहीं हो पाते गांव-वालों को...क्योंकि यह सब सुगमतापूर्वक शायद भारत में ही संभव है !!
                  पांचवा,आम भारतीय जन की काहिली और गप्पबाजी की खतरनाक आदत-- यह एक मुद्दा हमें कोसों पीछे ढकेल सकता है अगर इसके प्रति हम सचेत नहीं हुए,कि हम आम भारतीय भौगोलिक कारणों से या फिर अपनी जन्मजात काहिली की आदत के कारण ऐसे ही आम-तौर पर काफ़ी पीछे धकेले दे रहे हैं और मज़ा यह कि हमारी यह आदत हमें तो क्या किसी को हमारी बूरी आदत के रूप में दिखाई नहीं देती !!भारतीयों की इस बुराई(या खूबी??)के चलते भारत को गपोडियों का देश भी कहा जा सकता है,वो भी ऐसा कि यहां का एक सडक छाप आदमी भी दुनिया के प्रत्येक विषय में गहन रूप से पारंगत प्रतीत होता है,जो शायद अन्यत्र दुर्लभ ही है,आम भारतीय की प्रवृत्ति उन्हें दरअसल मसखरा बना देती है,मगर शायद हमें इन मामूली बातों से कोई फ़र्क पड्ता हो ऐसा देखने को नहीं मिलता,मगर सच तो यह है कि काम के दौरान की जाने वाली व्यर्थ की बातों के कारण किस प्रकार मिनटों का काम घंटों में परिणत हो जाता है,इसे देखने का होश शायद अब तक किसी को नहीं है या फिर ये भी संभव हो कि इसे समस्या के रूप में देखा ही ना जाता हो,क्योंकि काम के प्रति सबका रवैया एक-सा ही है इसलिए सबकी कार्यशैली तकरीबन यही बन चुकी है,किन्तु गप्पबाजी की यह आदत कब कामचोरी में बद्ल जाती है इसका अहसास भी आम भारतीयों को नहीं है,इसीलिए किसी भी काम में लेट-लतीफ़ी समस्त भारतीयों की पेटेंट फ़ितरत है और इस फ़ितरत के रहते हुए महाशक्ति तो क्या क्षेत्रीय शक्ति बनने के आसार भी नज़र नहीं आते !!
         छ्ठा,विज्ञान के साथ आम भारतीयों का अलगाव--विज्ञान के साथ आम भारतीयों का अलगाव साथ भारत के पारम्परिक ज्ञान के साथ भारत के वैज्ञानिकों का दुराव-- किसी भी देश की प्रगति में समय के साथ कदम-ताल मिला कर चलने की प्रवृत्ति के साथ ही अपनी परम्परा से आयी हुई खास आदतों और विशेषताओं को सहेज कर रखना भी विकास की ही एक कसौटी मानी जाती है जबकि भारत के सन्दर्भ में इसका ठीक उल्टा ही होता प्रतीत होता है कि जहां यहां के लोगों में किसी भी प्रकार की वैज्ञानिक चेतना का अभाव है बल्कि यहां के  वैज्ञानिकों में भी भारत के बहुमुल्य पारम्परिक ज्ञान के प्रति कोई सम्मान का भाव नहीं है और मिलाजुला कर इन दोनों पक्षों की अज्ञान-पूर्ण सोच के कारण आम लोगों में  विज्ञान का प्रसार तथा खास लोगों में पारम्परिक चेतना का प्रसार होता नहीं दिख पड्ता और इस स्थिति के रहते भी सामंजस्य पूर्ण विकास कतई सम्भव होता नहीं दिखता,क्योंकि इस तरह से कोई कार्य अपने जमीनी रूपों में साकार होता नहीं दिख पड्ता,सोच की यह विषमता दोनों पक्षों में एक किस्म का दावानल ही है !!
         कुल मिलाकर हम यह पाते हैं कि-- सच में ही भारत की तरक्की की राह में खुद भारत ही यानि कि भारतीय ही सबसे बडी बाधा हैं और सवाल यह है कि क्या हम भारतीय अपनी इन कमियों को स्वीकारने को तैयार हैं?देश जैसी एक भावूक चेतना का पोषन करने के लिए अपनी निजता का हनन करना होता है,अपने स्वार्थों को परे धरना पड्ता है,खून और पसीना बहाकर दिन-रात एक करना होता है!!सवाल यह कि क्या हम भारतीयों में भारत के प्रति कोई आमूल सोच,कोई विजन,कोई सपना है!मगर उससे भी बडा प्रश्न तो यह है कि भारत के रहनुमाओं के पास भारत के लिए कोई दिशा है?कोई अध्ययन,कोई रोशनी है कि थोडी सी दूर तक भी भारत उस रोशनी में अपने पांव बढा सके!!इनके मन में ऐसा कोई सपना भी है,जिसे तिरसठ साल पहले इसे आज़ाद कराने वाले स्वतन्त्रता सेनानियों ने बोया था तथा कुछ  ने तो बडी सीधी सी राह भी दिखाई थी!! दरअसल सपने ही वो रोशनी होते हैं,जिसकी आंच में तपकर आदमी निखरता है और जिसके प्रकाश में विकास,या तरक्की जो जो कहिए,के भीने-भीने और सुगन्ध भरे फूल खिलते हैं,और भारत के मामले में भी यह सच निस्सन्देह ही उलट तो नहीं हो सकता !! 

2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

acha article likha hai aapne.. likhte rahiye...

bharat ke mahasakti banne mein sabse badi adchan to khud bharat ki sarkaar hi hai... jab tak sarkar nahi sudharti tab tak desh ka bhala nahi ho sakta....

निर्मला कपिला ने कहा…

अपसे बिलकुल सहमत हूँ। सार्थक आलेख। मगर मुश्किल तो ये है कि सरकार,नेताओं के पास देश के बारे मे सोचने का समय ही नही है, और जनता भी मस्त है। फिर भी इस विषय को यूँ ही जिन्दा रखने की बहुत जरूरत है ताकि कभी न कभी किसी की आँखें दिमाग तो खुले। शुभकामनायें।