09 अगस्त 2010

विजय सक्सेना 'विपिन' की कविता -- मैडम, कल आना

कविता
मैडम, कल आना
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लो - सुबह हुई ,
वसुधा ने ली अंगड़ाई ,
चहक उठी , महक उठी ,
रोज़ कि तरह - वह ,
नहाई, निखरी , संवरी ,
और चली इठलाती,बलखाती, .

सूरज चला सामान बेचने ,
सतरंगी, सुनहरी, मखमली,
कड़क-चटक रंगों के ,
अनूठे परिधान बेचने,
दिन भर उठता, बटोरता ,
चलते-चलते सबको टोकता .

हरी, आसमानी, नीली - या,
गहरी लाल और,हलकी पीली ,
वसुधा तय नहीं कर पाई ,
इतने मै,मौसम न्र ली अंगड़ाई ,
आसमान पर बदली छाई .

सूरज ने, आधी खिड़की खोली ,
वसुधा ने कहा -' कुछ और दिखाना ?'
सूरज बोला - 'मेडम, अब कल आना. '

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प्रेषक :
विजय सक्सेना 'विपिन'
- भोपाल

3 टिप्‍पणियां:

Sunil Kumar ने कहा…

सूरज ने, आधी खिड़की खोली ,
वसुधा ने कहा -' कुछ और दिखाना ?'
सुंदर भावाव्यक्ति बधाई

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

सूरज ने, आधी खिड़की खोली ,
वसुधा ने कहा -' कुछ और दिखाना ?'
सूरज बोला - 'मेडम, अब कल आना. '

sach me khubshurat.........rachna!!

Divya Narmada ने कहा…

सुंदर भावाव्यक्ति बधाई