30 जुलाई 2010

तो फिर क्या आम आदमी ही देश द्रोही है .....???




तो फिर क्या आम आदमी ही देश द्रोही  है .....??

                          विकिलिक्स द्वारा अमेरिकी कारर्वाईयों के भंडाफ़ोड किये जाने और अमेरिकी सरकार द्वारा इसे संघीय व्यवस्था का उल्लंघन बताये जाने पर एक प्रश्न अपने-आप ही उठ खडा होता है कि क्या सिर्फ़ सरकारें ही व्यवस्था को बनाये रखती हैं,बाकि सब तंत्र उसका उल्लघंन ही करते हैं??
                             जबसे हमने लिखित इतिहास को पढा और उसके माध्यम से सब कालों में "सरकारों"का जो आचरण जाना और समझा है उससे तो ठीक उल्टा ही प्रमाणित होता है,अब तक के लिखित इतिहास के अनुसार हमने यही देखा है कि तरह-तरह की सरकारों ने किस-किस प्रकार के "सुनियोजित-कुकर्म" किये हैं और जब विभिन्न व्यक्तियों या किन्ही सामाजिक संगठनों ने उनके विरुद्द किसी भी प्रकार की आवाज़ उठायी या आंदोलन भी किया तो किस प्रकार से इस "सो-कोल्ड" सरकारों ने उनका गला घोंटा है या कि अपनी सेना और अपने अधीन तंत्र के द्वारा किस प्रकार की हिंसा के द्वारा कुचला है और मज़ा तो यह भी है कि यह सब आज इस "सो-कोल्ड’' या कहूं कि इस तथाकथित लोकतांत्रिक कहे जाने वाले "सभ्य" युग में भी हो रहा है,अंतर सिर्फ़ इतना है कि ऐसा आचरण करने वाली लोकतांत्रिक कही जाने वाली सरकारों का ढंग और कम्युनिस्ट सरकारों का ढंग एक-दूसरे थोडा अलग है.
             इससे कभी-कभी ऐसा भी प्रतीत होता है कि लोकतांत्रिक देशों में लोक-तंत्र का अर्थ महज इतना ही होता है कि नागरिक अपनी मनमानी करें और अगर सरकार को यह नागवार गुजरे तो वह अपनी मनमानी करे...फर्क सिर्फ़ इतना है कि सरकार की मनमानियां एक भयानक अत्याचार से भी भीषण हो सकती हैं,बाद में भले वह हटा दी जाये और बाद वाली सरकार उससे भी कमीनी साबित हो.....
             अब तक यही समझा जाता रहा है कि लोगों द्वारा चुनी गयी सरकारों में लोगों के हित ज्यादा सुरक्षित होते हैं,हालांकि ज्यादातर इतिहास इस बात की न सिर्फ़ तस्दीक नहीं करता बल्कि इसे नकारता भी है.सरकार के लोग,उपर से नीचे तक चाहे वो कोई भी हों,खुद के कर्म को उचित और आम नागरिक के कर्मों को ज्यादातर गलत बताते हैं....यह गलत होना गैर-कानूनी होने से लेकर देशद्रोह होना तक भी हो सकता है,यहां तक कि इसी तर्ज़ पर आज तक तमाम लोकतांत्रिक देशों के कानून उनके खुद के ही संविधान की धज्जियां उडाते दिखायी देते हैं.....और मज़ा यह है कि जिन कानूनों के बिना पर आम लोगों को कडी-से-कडी सज़ा तक दे दी जाती है....उन्हीं कानूनों की चिथडे उनके रखवाले हर वक्त करते हुए दिखायी देते हैं, मगर चुंकि हर आदमी अपनी ही समस्याओं से भरा उन्हें निपटाने में पगलाया रहता है.....उसे गरज़ ही नहीं होती इस सबको देखने की [जब तक कि वो खुद नहीं इस सब झमेले में फ़ंस जाये ]....और सिर्फ़ और सिर्फ़ इसीलिए यह सब चलता रहता है.....लोग आंख मूंद कर अपना-अपना जीवन व्यतीत करते रहते हैं....और सरकारी दुनिया में बिल्ली के भाग से छींका टूटता रहता है.....उस टूटे हुए छींके से ये सरकारी लोग [बिल्लियां]मलायी मार-मार कर खाते रहते हैं....यहां तक कि कोई आम नागरिक भी अगर इस मलायी को चाटना चाहे तो उसे निस्संदेह किसी ना किसी सरकारी हाथ की मदद का ही सहारा लेना होता है....मज़ा यह कि कल को अगर यह सब उजागर भी होता है तो इसका ठीकरा हर हालत में उस गैर-सरकारी व्यक्ति या समूह के माथे पर ही फ़ूटना होता है....अगर सरकारी हाथ कुछ ज्यादा ही काला हो गया हो तो तो सरकार खुद आगे बढ्कर उसे बचाया करती है...क्युंकि सरकार में भी तो ना जाने कितने ही पक्ष होते हैं,जिन्होने इस मलायी को चाटने में अपना भी मूंह मारा होता है......
           इसका सीधा मतलब आप यह भी लगा सकते हो कि सरकार का दामन हमेशा साफ़ ही होता है...हम जैसे हरामी-कमीने-बेईमान और भ्रष्ट लोग ही सरकार का मूंह काला किये जाते हैं[सरकार के साथ मूंह काला नहीं करते....!!!]और इसीलिये सरकार का विरोध करने वाले.....सरकार अलग सोचने वाले...सरकार से बिल्कुल ही भिन्न नीति रखने वाले....और सरकार के गलत कार्यों का विरोध करने वाले ना सिर्फ़ उसकी [गोपनीय]संघीय व्यवस्था का उल्लंघन करने वाले समझे जाते हैं,अपितु देशद्रोही तक भी साबित किये जा सकते हैं......प्रत्येक सरकारी व्यक्ति,चाहे वह कितना ही अदना-सा....किसी भी सामान्य समझदारी का गैर-जानकार...या कि बिल्कुल ही टुच्ची सी समझ रखने वाला भी क्यों ना हो.....उसके अधिकार.. उसकी ताकत....उसका अहंकार....उसका रुतबा...उसकी कडकता....उसका रूआब....और सबसे बढ्कर ना जाने किन अनजान जगहों से आने वाला अथाह धन उसे हमसे इतर साबित करते हैं....मगर वह देश-द्रोही कभी नहीं कहला सकता....अगर कभी कहला भी गया तो यह माना जाता है कि जरूर ही उसके खिलाफ़ कोई गहरी राजनीतिक साजिश रची गयी है...और इसके पीछे अवश्य ही विपक्षी राजनीतिक दल है....और इस प्रकार उस गद्दार व्यक्ति या समूह इस तरह के तमाम देश-द्रोही कार्यों के प्रति आंख मूंद ली जाती है....और ऐसा क्यों ना हो.....आखिर उस हमाम में सभी शरीक जो हैं.....
           सरकार के अनुदान से चलने वाला बहुतेरा मीडिया भी इस हमाम का ही वासी ही होता है....इस मलायी का चटोरा.....सो एक तरफ़ मीडिया का एक हिस्सा उस गलत व्यक्ति/समूह या सरकार के इन कारनामों को उजागर कर रहा होता है....वहीं....यह मीडिया-विशेष अपनी पूरी ताकत और जद्दोजहद के संग उन गलत कार्यों में बराबर का भागीदार बन कर सरकार का वकील बनकर उन तमाम गलत पक्षों के पक्ष में तमाम निराधार और घटिया दलीलें पेश करता है....जिन्हें हम बराबर हरामीपने के कुतर्क साबित कर सकते हैं....और समय-समय पर ऐसा करते भी हैं......मगर ऐसा कब तक चले.....और क्योंकर चले.....??सरकारों का कार्य क्या सिर्फ़ हरामीपना करना है....??सरकारें क्या किसी और लोक से उतरी हैं और किसी के भी प्रति उत्तर्दायी नहीं हैं.....??और आम आदमी का कोई और काम नहीं है क्या,जो वह सरकारों और उससे जुडे तमाम लोगों पर नज़र रखे....और अपना महत्वपूर्ण काम-धाम छोड देने की कीमत चुका कर "ऐसे लोगों” की पोल खोजता चले.....??सरकारें एयरकंडीशंड रूमों में बैठ कर तमाम उल्टे-सीधे निर्णय ले ले....फिर आम आदमी या संगठन  सडक पर आंदोलन करता चले.....??जब सब राय आम आदमी को देनी है....और सरकार को उसके हर किये हुए कर्म का अच्छा-बूरा बतलाना है.....तो फिर ऐसे निकम्मे लोगों को सरकार बनाने का न्योता ही क्यों देना है...??
                  क्या सरकार होने का मतलब यही होता है.....कि आप मनमानी करते रहो.....मनमाने निर्णय लेकर अपने ही नागरिकों की जान सांसत में डालते रहो....उनका जीवन जीना हराम करते रहो.....??अपनी ऊंची अट्टालिकायें खडी करते रहो.....सब तरह का नाजायज काम उन्हीं नियमों के छेदों की आड में करते रहो...जिसकी बिना पर तुम किसी दूसरे को जेल में झोंक देते हो....???और मीडिया-कोर्ट और सभी तरह के संगठन सरकार के पीछे भोंपू और लाठी लेकर दौडते फ़िरें....???समझ नहीं आता कि आखिर सरकार है तो आखिर है क्या....??सरकारें हम बनाते हैं हममे से कुछ लोगों को अपना प्रतिनिधि बनाकर हमारे बीच सब किस्म की व्यवस्था कायम करने के लिये....वो भी अपने खर्च से हुए चुनाव से और अपने ही खर्च पर दिये जाने वाले उन हज़ारों नेताओं और तमाम सरकारी लोगों को वेतन देकर.....और सब सरकार बनाते ही सिर्फ़ "अपनी व्यवस्था " कायम करने लग जायें....तो उन्हें वापस कैसे बुलाया जाये.....और उनके लिये किस तरह की सज़ा तय हो...अब सिर्फ़ इसी एक बात पर विचार करना है हमारे समाज रूपी तंत्र को....अगर सरकारें अप्रासंगिक हो गयीं हैं...या हरामी हो गयी हैं....तो उसी की वजह से न सिर्फ़ यह कु-व्यवस्था फ़ैलती है....बल्कि नस्लवाद-आतंकवाद नाम नासूर भी यहीं से पनपता है....पल्लवित होता है....और सरकार के हरामीपने की तरह सब जगह फ़ैल जाय करता है.....जिस तरह अपराधियों का इलाज लाठी-डंडे-कोडे तथा अन्य तरह की सज़ायें तय हैं.....उसी तरह यही सजायें क्या इन लोगों के लिये नहीं तय की जा सकती....अगर माननीय न्यायालय कानूनों में छेद की वजह से उचित फ़ैसला कर पाने में अक्षम है....तो फिर जनता को ही क्यों नहीं इसका ईलाज करना चाहिये....!! मुझे उम्मीद है कि यह अनपढ-गरीब और सतायी हुई जनता एकदम ठीक फैसला लेगी.....हो सकता है कि सभ्य लोगों को उसका फैसला "जंगल का कानून सरीखा लगे..."मगर अगर सब तरफ़ जंगली लोग ही हों...और आम जनता के अधिकारों का बर्बरतापूर्वक हनन कर रहे हों तो आप किस तरह उनका इलाज सो कोल्ड सभ्य कानूनों द्वारा कर सकते हैं....!!
                      पानी सर से अत्यधिक उपर जा चुका है....जनता को अब फैसला लेना ही होगा....कि उसे क्या चाहिये.....एक अमानवीय और किसी भी प्रकार की उचित सोच से रहित सरकार......और उसकी नाक तले ऊंघ रहा हरामजादा प्रशासन......कि इन सबसे मुक्ति.....अगर दूसरे रास्ते की मन में है....तब तो आगे बिल्कुल रद्दोबदल कर डालिये......अपने बीच से एकदम नये लोग निकालिये....और उन्हें चेतावनी देकर ही संसद और विधान सभाओं में भेजिये.....और अभी......अभी के लिये यही कहुंगा कि इस वर्तमान को अभी-की-अभी उखाड फेंकिये.....और यह आप सब....हम सब....यानि कि आम जनता ही कर सकती है.....क्योंकि हरामियों को सज़ा देने में हमारा कानून.....और हमारा संविधान भी पस्त हो चुका है.....!!!

1 टिप्पणी:

मनोज कुमार ने कहा…

विचारोत्तेजक!