13 जुलाई 2010

क्या हम सब एक जंगल में रहते हैं.....??


मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

   क्या हम सब एक जंगल में रहते हैं.....??
..........जंगल.....!!यह शब्द जब हमारी जीभ से उच्चारित होता है....तब हमारे जेहन में एक अव्यवस्था...एक कुतंत्र...एक किस्म की अराजकता का भाव पैदा हो जाया करता है....इसीलिए मानव-समाज में जब भी कोई इस प्रकार की स्थिति पैदा होती है तो हम अक्सर इसे तड से जंगल-तंत्र की उपमा दे डालते हैं.....मगर अगर एक बार भी हम जंगल की व्यवस्था को ठीक प्रकार से देख लें तो हम पायेंगे कि हमारी यह उपमा ना सिर्फ़ गलत है....अपितु जंगल-विरोधी भी है....!!
               क्या कभी किसी ने किसी भी जंगल में अव्यवस्था नाम की चीज़ देखी भी है...??अव्यवस्था दरअसल कहते किसे हैं?....जंगल में (प्रक्रिति) का सिस्टम क्या होता है...यही ना कि शेर हिरण को खा जाता है....??मगर कब...जब उसे भूख लगती है केवल-और-केवल तब..!!जब-तब तो नहीं ही ना...मगर यह सिस्टम तो उपरवाले द्वारा प्रदत्त सिस्टम है...जिससे जंगल ही नहीं बल्कि सारा जगत चला चला करता है...मानव-जगत के सिवा....जल-थल और नभ,सब जगह का प्राकृतिक नियम एक समान है कि एक मजबूत भूखा जानवर एक कमजोर जानवर को खा जाता है...मगर सब जगह एक बात सामान्य है...वो यह कि सब जानवरों को जब भूख लगती है....केवल और केवल तभी उसके द्वारा दूसरे को खाये जाने की ऐसी घटना घटती है....इसके अलावा बाकी सब कुछ,सब समय,सब जगह बिल्कुल सामान्य और सहज ढंग से घटता रहता है.....प्राय: सब जानवर एक-दूसरे के संग आपस में घुल-मिलकर ही रहा करते हैं...और ऐसा होना हमारी जानकारी के अनुसार जीव-जगत के प्रादुर्भाव के समय से ही सुचारू ढंग से चला आ रहा है....शायद चलता भी रहेगा.....गनीमत है कि कम-से कम जंगल या जीव-जगत में यह एक अनिवार्य किस्म की नियमबद्द्त्ता जारी ही है....वरना हम हम कभी के नियम नाम की किसी चीज़ को भूल गये होते....!!
                      आदमी के जगत में,भले ही आदमी खुद को क्या-न-क्या साबित करने में लगा रहे मगर,हर पल यह बात साबित होती है कि अनुशासन में बंधना आदमी की फ़ितरत कतई नहीं है....भले ही धरती के कुछ हिस्सों में आदमी नाम की यह जात अनुशासन नाम की चीज़ से बंधी हुई दीख पड्ती है...मगर यह अनुशासन अधिकांशत: भय-जनित प्रक्रिया है,जहां कि नियम का पालन न करने पर कठोर दंड का प्रावधान है....और मज़ा यह कि तमाम कठोर-से-कठोर दंडों के बावजूद भी आदमी नाम का यह उच्चश्रृंखल  जीव नीच-से-नीच कर्म करता पाया जाता है....बेशक फांसी भी चढ जाता है....मगर अपने कुकर्मों से तनिक भी बाज नहीं आता...और मज़ा यह कि यही आदमी हर वक्त खुद को जानवरों से बेहतर बताता है...!!
                                अगर सिर्फ़ सोच के बूते,जबकि उस सोच का अपने जीवन में किसी भी प्रकार की करनी पर कोई असर तक ना हो,एक जात विशेष को बिना किसी से पुछे अपने-आप ही बेहतर बताना एक किस्म की धृष्टता ही कही जायेगी...एक अहंकार-जनित अहमन्यता.....!!मगर आदमी को इससे क्या लेना-देना....वो श्रेष्ठ था,श्रेष्ठ  है और सदा श्रेष्ठ ही रहेगा.... किसी को कोई दिक्कत है तो हुआ करे उसकी बला से....!!मगर आदमी की तमाम करनी को जानवरों के कर्मों से तौलें तो हम यही पायेंगे कि जंगल, आदमी के समाज से सदा बेहतर था...बेहतर है....और शायद जन्म-जन्मान्तर तक बेहतर ही रहेगा क्योंकि जानवर की तलाश सिर्फ़-और-सिर्फ़ पेट की भूख है....मगर आदमी की तलाश पेट से ज्यादा अहंकार.... लालच....और उससे निर्मित स्वार्थ की है....और चुंकि आदमी सोचता भी है....सो भी वह अपने स्वार्थ से ज्यादा कभी कुछ नहीं सोचता...भले वह बातें तरह-तरह की जरूर कर ले....और अपनी लच्छेदार बोलियों से अपने स्वार्थ...अपने अहंकार....अपने लालच...अपनी बेईमानियों को तरह-तरह के प्यारे-प्यारे नाम और काल्पनिक शक्ल क्युं ना दे दे....!!
                        आदमी इस जगत वह सबसे अलबेला जीव है....जो अपने समुचे जीवन में अपनी तमाम कथनी और करनी के अंतर के बावजूद खुद को खुद ही श्रेष्ठ साबित किये हुए रहता है....और मज़ा यह कि इसमें उसका खुद का ही,यानि अपनी खुद की जाति के लोगों का समर्थन भी रहता है....अपने स्वार्थ...अपने अहंकार....अपने लालच...अपनी बेईमानियों के एवज में वो कत्ल करता है.....बम फ़ोडता है....हज़ारों लोगों का एक साथ कत्लेआम करता है....अपने जीवन में खुद को और खुद के संबंधियों को आगे बढाने के लिये ना जाने क्या-क्या करम करता है....खुद के रंग....धर्म....नस्ल....धन....वर्ग को ऊंचा साबित करने से ज्यादा सामने वाले को बौना साबित करने के लिये हर-प्रकार के शाम-दाम-दंड-भेद का सहारा लेता है... चुगलखोट्टा तो यह जीव इतना है कि धरती का हर जीव इसके सम्मुख तुच्छ है....और अहंकारी इतना कि ऊपरवाला भी इसके सामने पानी भरे....लालची भी इतना कि दुनिया का सब कुछ उदरस्थ करके भी इसका जी भरने को ना आये....और मज़ा यह कि फ़िर भी आदमी सबसे श्रेष्ठ है...क्या आपको हंसी नहीं आती आदमी की यानि अपनी इस स्वनामधन्य अहंकार-जनित श्रेष्ठता पर....यदि नहीं....तो आप भी इसी प्रकार की आदमीयत का इक हिस्सा हैं.....
                                आदमी हमेशा समाज-समाज करता रहता है....मगर उसके समाज की अंतरंग सच्चाई क्या है....??
               क्या यह समाज,जो एक ही जाति के लोगों का तथाकथित पढा-लिखा,सभ्य-ससंस्कृत समाज है,क्या वास्तव में यह है.. ??
              क्या धरती के इस हिस्से से लेकर उस हिस्से तक वह किसी भी एक रूप से एक है??
              वसुधैव-कुटुम्बकम की प्यारी-प्यारी धारणाओं के होते हुए भी क्या कभी भी किसी भी वक्त में यह धारणा या ऐसी ही कोई अन्य धारणा धरती पर विचार-भर के अलावा अन्य किसी भी रूप में फलीभूत हुई भी है??                                  
              क्या समाज आज भी तरह-तरह से एक-दूसरे का खून नहीं पीता....??वह भी सामाजिकता का चोला ओढ़कर....!!!!
             यह समाज क्या आज भी बिना किसी कारण के महज अपनी धारणा को पुख्ता बताने के वास्ते दूसरे का सिर कलम नहीं कर देता ??
             क्या यही समाज आज भी किसी गैर के या यहां तक कि अपने ही घर में अपनी बहन-बेटियों का रेप नहीं करता??
             क्या आज भी यह समाज अपने फायदे के लिये कौन-सा गंदे-से-गंदा काम नहीं करता....??
             आदमी के द्वारा किये जाने वाले अगर इन तमाम कामों की फ़ेहरिस्त तैयार करूं तो एक लंबा-सा आलेख अलग से और तैयार करना पडेगा....!!(आप कहें तो शुरू करूँ....??)
             सच तो यह है कि भाषा आदमी की....बोली आदमी की....जानवर तो बिचारे मूक प्राणी रहे हैं सदा से,इसलिए सदा से इस धरती पर बेखट्के राज करता आया है आदमी....मगर करे ना राज आदमी कौन साला उसे मना करता है....मगर अपनी करनी का दंड इस पूरी धरती को क्यूं देता है....अपने किये की गाज जानवरों-पहाडों-नदियों और तमाम तरह के वातावरण पर क्यूं डालता है....??
             और तो और आदमी पशुओं के नाम की गाली क्यूं देता है....पशु बेचारों ने आदमी के बाप का क्या बिगाडा है??यह जो सामाजिक दुर्व्यवस्था है...यह तो आदमी नाम के इस जीव की मौलिक उपज या आविष्कार है...!! इसे जंगल का नाम देकर जंगल बेचारे का नाम बदनाम क्यूं करता है...??
              खुदा ना खास्ते अगर कभी कुछ जानवरों ने आदमी की कुछ हरकतें सीख लीं ना.....तो आदमी का समाज जंगल चाहे बना हो या बना हो.....जंगल अवश्य एक वीभत्स समाज बन जायेगा आदमी की एक घटिया कार्बन-कापी....एकदम बेलगाम...उच्चश्रृंखल ...और इन बेचारों को यह मालूम भी ना पडेगा कि वो क्या-से-क्या बन गए हैं और उनका जंगल भी.....क्या-से-क्या....!!
            आदमी तो शायद अपनी सोच से संभवत: कभी बदल भी पाये.... क्यूंकि शायद कभी तो वह ठीक-ठाक तरह भी सोच ले.....मगर जानवर तो यह सोच भी नहीं सकते कि गलती से वे भी अगर आदमी की तरह हो गये तो धरती किस किस्म की हो जायेगी.....!!!

1 टिप्पणी:

निर्मला कपिला ने कहा…

आदमी हमेशा समाज-समाज करता रहता है....मगर उसके समाज की अंतरंग सच्चाई क्या है....??
वाजिब सवाल और विचारणीय पोस्ट है। धन्यवाद।