11 अप्रैल 2010

डॉ0 रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ का आलेख

अनुभव और अनुभूति की आँच में तपा राग-संवेदन: महेंद्रभटनागर-विरचित अद्यतन काव्य-कृति

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लेखक -- डॉ0 रामसनेही लाल शर्मा यायावर

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डा. महेंद्रभटनागर एक सतत रचनाशील कवि, संकल्पशील कर्मयोगी, मूल्यनिष्ठ शिक्षक, रागदीप्त गृहस्थ और मेधावी चिन्तक रहे हैं। काव्य-कृति राग-संवेदन उनकी समूची जीवन-यात्रा का भावात्मक प्रस्तुतीकरण है। ये कविताएँ कवि के गहन अन्तस्तल से निकली राग-दीप्त अभिव्यक्तियाँ हैं। इन कविताओं से गुज़रना मानों एक इतिहास से गुज़रना है। इनमें केवल कवि का युग ही साँस नहीं ले रहा; वह दृष्टि भी जाग्रत व चित्रित है जो कवि के पास है। इस सबके होते हुए कवि डा. महेंद्रभटनागर व्यक्तिनिष्ठता से बचकर कविता की संवेदना को सार्वजनीन बनाकर उसे सार्वकालिक भी बना सके हैं तो इसे उनका चमत्कार ही मानना चाहिए। इन रचनाओं का संवेदना-संसार अत्यन्त व्यापक व विस्तृत है। पर्यावरण-प्रदूषण की चिन्ता से लेकर विश्व-प्रेम तक, अपनों-परायों से मिली यातनाओं व धोखों से उत्पन्न पीड़ा से लेकर समतामूलक समाज की स्थापना के स्वप्न तक, वैयक्तिक आसक्ति की पीड़ा से लेकर अनासक्तिमूलक जिजीविषा तक तथा किसी अपने के बिछोह से उत्पन्न पीड़ा से लेकर दुर्दान्त युग की विसंगतियों तक सभी-कुछ इन कविताओं में परिव्याप्त है। कवि ने जहाँ दर्द को जिया है, वहाँ उसने अपनी अनथक जिजीविषा को भी कभी पराजित नहीं होने दिया है। इन रचनाओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि एक ओर ये कवि के अन्तः संसार अर्थात् उसकी भावनाओं, संवेदनाओं, मूल्यों, परम्पराओं, विश्वासों, संकल्पों और आस्थाओं को पाठक के सामने प्रस्तुत करती हैं; वहीं दूसरी ओर ये बाह्य संसार और उसकी जटिलताओं को भी प्रस्तुत करती हैं।

कवि डा. महेंद्रभटनागर के पास अत्यन्त सक्षम और समर्थ भाषा है। इसलिए वे सामान्य शब्दों को भी दूरगामी अर्थ-सम्भावनाएँ से संयोजित कर अपनी रचनाओं को अप्रतिम बना देते हैं। उदाहरणार्थ उनकी बदलो कविता का यह उद्धरण लें :

सड़ती लाशों की दुर्गन्ध लिए

छूने/गाँवों-नगरों के/ओर-छोर

जो हवा चली

उसका रुख़ बदलो!

ज़हरीली गैसों से/अलकोहल से लदी-लदी

गाँवों-नगरों के नभ-मंडल पर

जो हवा चली

उससे सँभलो/उसका रुख़ बदलो!

यहाँ हवा अत्यन्त समर्थ प्रतीक बनकर उभरी है। अपसंस्कृति, बाज़ारवाद मानव-मानव के बीच फैली स्वार्थपरता, संवादहीनता और संवेदनहीनता अर्थात् सभी मूल्यहन्ता और हृदयहन्ता परिस्थितियों तथा समूचा दमघोंटू समकालीन परिवेश हवा के रूप में यहाँ प्रतीकित हो रहा है। आज व्यक्ति की जो समस्या है, शायद जो सबसे बड़ी समस्या है, वह यह है कि व्यक्ति-व्यक्ति के बीच के रागात्मक पुल टूट गये हैं। मानवीय संबंधों में स्वार्थ का विष भर गया है। स्वार्थ की कीचड़ से अपनापन गँदला हो गया है। ऐसे में संवेदनशील मन की यातना है भीड़ का अकेलापन:

लाखों लोगों के बीच/अपरिचित अजनबी

भला,/कोई कैसे रहे!

उमड़ती भीड़ में/अकेलेपन का दंश

भला,/कोई कैसे सहे!

असंख्य आवाज़ों के/शोर में

किसी से अपनी बात

भला,/कोई कैसे कहे!

कवि जब आज के मानव में व्याप्त सीमातीत स्वार्थपरता को देखता है तो मानव के चारित्रिक अध:पतन को देखकर उनका हृदय पीड़ित हो जाता है :

कितना ख़ुदग़रज़/हो गया इंसान!

बड़ा ख़ुश है/पाकर तनिक-सा लाभ

बेचकर ईमान!

चंद सिक्कों के लिए/कर आया

शैतान को मतदान!

नहीं मालूम ख़ुददार का मतलब,

गट-गट पी रहा अपमान!

रिझाने मंत्रियों को/उनके सामने

कठपुतली बना निष्प्राण,

अजनबी-सा दीखता

आदमी की खो चुका पहचान!

परन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि कवि केवल संसार में व्याप्त विभीषिकाएँ ही देख रहा है या संसार का केवल निराश व हताश करने वाला कृष्ण-पक्ष ही उसे दिखायी पड़ता है; वरन इसके विपरीत वह अंधकार की छाती पर आशा का दीपक जलाने को आतुर दिखायी पड़ता है। यों कहा जा सकता है कि कवि डा. महेंद्रभटनागर मानते हैं कि संसार में दुःख हैं, यातनाएँ हैं, पीड़ाएँ हैं, विषमताएँ हैं, और हृदय की पोर-पोर को विषदग्ध करने वाली मारक परिस्थितियाँ हैं फिर भी यह संसार जीने योग्य है। नहीं तो इसे बनाया जा सकता है, बनाया जाना चाहिए। डा.महेंद्रभटनागर स्वप्नदर्शी हैं। तभी तो उन्होंने समतामूलक समाज की स्थापना का स्वप्न देख लिया है :

समता का/बोया था जो बीज-मंत्र

पनपा, छतनार हुआ!

सामाजिक-आर्थिक

नयी व्यवस्था का आधार बना!

शोषित-पीड़ित जन-जन जागा,

नवयुग का छविकार बना!

साम्य-भाव के नारों से

नभ-मंडल दहल गया!

मौसम/कितना बदल गया!

डा. महेंद्रभटनागर विश्व-परिवार का ऐसा स्वप्न सँजोते हैं जिसमें सभी मानवों को एक परिवार के सदस्य की तरह रहने का अवसर मिले। जब-तक विश्व-परिवार नहीं बनेगा, जब-तक अपनत्व का विकास नहीं होगा, तब-तक विश्व की सारी वैज्ञानिक प्रगति, सारे उपग्रह, अन्तरिक्ष की सारी उड़ानें, सारे सुपर-कम्प्यूटर और सारे सोफ्ट-वेयर निरर्थक हैं। अतः संसार के सभी मानव-सदस्यों को :

कल्पित दिव्य शक्ति के स्थान पर

मनुजता अमर सत्य कहना होगा!

सम्पूर्ण विश्व को/परिवार एक

जानकर, मानकर/परस्पर मेल-मिलाप से

रहना होगा!

संसार में व्याप्त अंधकार, अज्ञान, अनीति, निराशा, विसंगति और विषमता से जूझने के लिए कवि डा. महेंद्रभटनागर का अन्तरस्थ कवि एक ओर तो स्वप्नदर्शी हो जाता है वहीं दूसरी ओर व्यक्तिगत धरातल पर अक्षय जिजीविषा और सतत कार्यशीलता का संकल्प ले लेता है। यह इसी संकल्प का स्वर है:

लेकिन/मेरी हुँकृति से/थर्राता है आकाश-लोक,

मेरी आकृति से/भय खाता है मृत्यु-लोक!

तय है/हारेगा हर हृदयाघात, लुंज पक्षाघात

अमर आत्मा के सम्मुख!

जीवन्त रहूंगा/श्रमजीवी मैं,

जीवन-युक्त रहूंगा/उन्मुक्त रहूंगा!

यही नहीं, यह अनथक कर्मयोगी कवि चरैवेति-चरैवेति के ऊर्जस्वी उपनिषदीय मंत्र का भी विश्वासी है। इसीलिए तो वह कहता है :

राह का/नहीं है अन्त

चलते रहेंगे हम!

दूर तक फैला अँधेरा

नहीं होगा ज़रा भी कम!

टिमटिमाते दीप-से

अहर्निश/जलते रहेंगे हम!

इसके साथ ही वह कर्म का और जीवन का भरपूर आनन्द लेना चाहते हैं और हर क्षण का पूरा उपभोग कर उसे जीवन का रस बनाना चाहते हैं :

हर लमहा

अपना गूढ़ अर्थ रखता है,

अपना एक मुकम्मिल इतिहास

सिरजता है,

बार-बार बजता है!

इसलिए ज़रूरी है

हर लमहे को भरपूर जियो,

जब-तक

कर दे न तुम्हारी सत्ता को

चूर-चूर वह!

भाषा की सरलता और अर्थ का दूरगामी विस्तार राग-संवेदन की कविताओं को अन्यतम बनाता है। कवि नयी भाषा की खोज नहीं करता, न परिमार्जित परिनिष्ठित हिन्दी का ठाठ सँजोकर अपनी विद्वता की धक जमाता है अपितु वह साधरण भाषा में असाधरण अर्थ-दीप्तियाँ जगाता है। यही कवि डा. महेंद्रभटनागर के कवित्व की अन्यतम विशेषता है। बिम्ब और प्रतीक नितान्त सुपरिचित हैं। हवा, पानी, धुँआ, तीर्थ, घटा, आग, कंकड़ों का ढेर, आदि परम्परागत प्रतीक हैं। परन्तु डा. महेंद्रभटनागर ने इन्हीं में गहन अर्थ की शक्ति भर दी है। कुल मिलाकर, भाव-सम्पदा, दीर्घ जीवनानुभव में तप्त रागात्मक संवेदना, मूल्य-दृष्टि और साधरणता में असाधरणता का आभास कराते शिल्प के कारण राग-संवेदन की कविताएँ संस्कारित रुचि वाले पाठकों के अन्तस को झंकृत करेंगी।


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