04 दिसंबर 2009

नव गीत: सागर उथला / पर्वत गहरा... संजीव 'सलिल'

नव गीत:

संजीव 'सलिल'

सागर उथला,

पर्वत गहरा...

*

डाकू तो ईमानदार

पर पाया चोर सिपाही.

सौ पाए तो हैं अयोग्य,

दस पायें वाहा-वाही.

नाली का

पानी बहता है,

नदिया का

जल ठहरा.

सागर उथला,

पर्वत गहरा...

*

अध्यापक को सबक सिखाता

कॉलर पकड़े छात्र.

सत्य-असत्य न जानें-मानें,

लक्ष्य स्वार्थ है मात्र.

बहस कर रहा

है वकील

न्यायालय

गूंगा-बहरा.

सागर उथला,

र्वत गहरा...

*

मना-मनाकर भारत हारा,

लेकिन पाक न माने.

लातों का जो भूत

बात की भाषा कैसे जाने?

दुर्विचार ने

सद्विचार का

जाना नहीं

ककहरा.

सागर उथला,

पर्वत गहरा...

*

1 टिप्पणी:

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

सागर उथला,
पर्वत गहरा...
--वाह आचार्य जी, आपने मन प्रसन्न कर दिया।