03 दिसंबर 2009

देश की माटी के सच्चे सपूत -भारत रत्न डा ० राजेन्द्र प्रसाद

भारतीय गणतंत्र के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न राजेंद्र प्रसाद का आज जन्मदिवस है जो न केवल एक नामचीन विधिवेत्ता एवं मूल्यों के प्रति समर्पित स्वतंत्रता सेनानी के रूप में जाने जाते हैं ,वरन संविधान सभा के अध्यक्ष एवं देश के प्रथम राष्ट्रपति के रूप में उनकी भूमिका अतुलनीय रही है ।
डा ० राजेंद्र प्रसाद बिहार के जीरादेई ग्राम में जन्मे थे । प्रारम्भ से हे असाधारण प्रतिभा से उन्होंने सदैव अपने शिक्षकों का मन मोहा और कक्षा में नए कीर्तिमान स्थापित किए । कलकत्ता हाईकोर्ट में उनकी ख्याति देश के गिने - चुने बैरिस्टरों में की जाती थी । देश की गुलामी के प्रति संघर्ष की लालसा ने उन्होंने जमीजमाई वकालत छोड़ कर स्वाधीनता संघर्ष में कार्य करने को प्रेरित किया । गाँधी जी उनकी विद्वत्ता एवं सादगी से इतने प्रभावित थे कि उनका सदैव साथ चाहते थे। नेहरू जी भी उन्हें अत्यन्त आदर देते थे और उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करते थे । गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन में बिहार का कार्यभार उन्होंने बखूबी सभांला।
स्वतंत्रता के पश्चात निर्मित संविधानसभा के वे सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुने गए उनके कुशल निर्देशन में संविधानसभा में जो बहसें हुई, वे देश के इतिहास में अद्वितीय स्थान रखती हैं देश से विभिन्न क्षेत्रों से चुन कर आए विविध हितों ,भाषाओँ और क्षेत्रों के लिए स्वीकार्य सविधान के लिए वाद-विवाद का संचालन और फ़िर एक आमसहमति पर आधारित प्रारूप पर सहमति बनाना एक दुष्कर कार्य था जिसे पूरा करना राजेन्द्र बाबू जैसे व्यक्तित्व के लिए ही सम्भव था
उनकी क्षमता को देखते हुए ही उन्हें भारतीय गणतंत्र का प्रथम राष्ट्रपति बनाया गया । जो राष्ट्रपति भवन वायसरायों व गवर्नर जनरलों के वैभव का प्रतीक था ,वह राजेन्द्र बाबू की सादगी एवं गाँव की सौंधी मिटटी से सुवासित होने लगा । उनसे मिलने पर किसी को भी पाबन्दी नहीं थी। स्वाधीनता संघर्ष में उन्होंने चरखे से स्वयं सूत कात कर वस्त्र पहनने का जो संकल्प लिया था ,राष्ट्रपति बनने क बाद भी उसे अपनाते रहे ।
राष्ट्रपति के रूप में राजेन्द्र प्रसाद जी ने अपने कार्यों से इस पद को जो गरिमा प्रदान की एवं मान्यताएं स्थापित कीं ,वे उनके उत्तराधिकारियों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हुईं भारतीय संविधान में राष्ट्रपति मात्र एक औपचरिक राज्य प्रधान नहीं है ,वरन संविधान का सुचारू संचालन होता रहे ,यह जिम्मेवारी भी राष्ट्रपति की है ,इस तथ्य को राजेन्द्र प्रसाद जी ने व्यावहारिकता प्रदान की । rउनके लिए अपने संवैधानिक कर्तव्यों के आगे व्यक्तिगत सम्बन्ध गौण थे। घनिष्ठ मित्र होने बाद भी नेहरू जी से कुछ मुद्दों पर उनका मतभेद रहा था । हिंदू कोड बिल पर उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि वे इसे उचित नहीं मानतेऔर सासदों को उन्होंने संदेश भेजने के अधिकार का प्रयोग किया । तिब्बत को 'बफर स्टेट 'बनाये रखना वे भारत की सुरक्षा के लिए आवश्यक मानते थे और इस पर चीन के खतरनाक इरादों के बारे में उन्होंने नेहरू जी को सचेत भीकिया था,पर नेहरू जी चीन को खुश करने के चक्कर में तिब्बत की बलि दे बैठे , और इसका दुष्परिणाम १९६२ में चीन के आक्रमण के रूप में देश को भुगतना पडा ।
पद से अवकाश ग्रहण करने के बाद राजेन्द्र बाबू पटना में सदाकत आश्रम में रहने लगे. १९६३ में जब उनका निधन हुआ तो नेहरू जी उनकी अंत्येष्ठी में तो शामिल नहीं ही हुए बल्कि तत्कालीन राष्ट्रपति डा ० राधाकृष्णन को भी वहां न जाने सलाह दी ,जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया। नेहरू जैसे व्यक्तित्व का इस तरह का आचरण दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है।
राजेन्द्र बाबू को देश ने 'भारत रत्न ' से सम्मानित कर अपनी कृतज्ञता ज्ञापित की। उनके जैसा व्यक्तित्व देश में कोई दूसरा नहीं हुआ।

1 टिप्पणी:

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

बहुत बढिया आलेख. बधाई.