25 जून 2009

डा0 देवदास टेम्भरे से दलित-विमर्श पर डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव की बातचीत

दलित साहित्यकार दलित साहित्य की विकास यात्रा में सामाजिक परिवर्तन की चेतना को नये सिरे से परिभाषित कर रहे हैं
डा0 देवदास टेम्भरे

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वीरकुंवर सिंह वि0 वि0, आरा बिहार के सम्मानित अभिषद् (सिंडिकेट) सदस्य एवं एस0 पी0 जैन कालेज सासाराम स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग के अध्यक्ष डा0 देवदास टेम्भरे, जो एक मानवतावादी एवं दलित चेतना एवं चिंतन के व्याख्याता हैं। डा0 देवदास जी अपने लेखन में सामाजिक विसंगतियों के विरूद्ध कुछ कर गुजरने की चाह रखते हैं। आपके दलित लेखन एवं चिंतन से सम्बन्धित अनेक शोध आलेख देश की स्तरीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। राष्ट्रीय स्तर की सेमिनारों में दलित सम्बन्धी शोध पत्रों के माध्यम से आपने दलित समस्याओं को शिद्दत के साथ उठाया है और दलित जीवन से सम्बन्धित ढेर सारे सुलगते प्रश्नों और उनके सम्भाव्य समाधानों को प्रस्तुत करने का निश्चल प्रयास भी किया है ..... आपसे ‘दलित चिंतनः परम्परा की प्रासंगिकता एवं सामाजिक परिप्रेक्ष्य’ विषय पर बातचीत के कुछ अंश।
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डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव - डा0 साहब आपकी दृष्टि में दलित कौन हैं?
डा0 देवदास टेम्भरे - ‘दलित’ शब्द प्राचीन है किन्तु आज एक आन्दोलन है। भारत में ‘दलित’ शब्द का सबसे पहले प्रयोग महात्मा ज्योतिषा फुले ने किया था। बाबा साहब डा0 भीमराव आम्बेडकर बहुत दिनों तक दलित की जगह ‘अछूत’ शब्द का ही इस्तेमाल किया करते थे। किन्तु आज दलित किसे कहा जाए और दलित कौन है परिभाषित करना थोड़ा मुश्किल काम जरूर है।
मेरी दृष्टि में दलित वे लोग हैं जो जात-पात, छुआछूत उच्च-नीच की भावना से ग्रसित है वे सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक एवं धार्मिक परिवेश में शोषित हैं। अर्थात् वे लोग जो सवर्णों द्वारा कुचले हों, मर्दित हों, जिसका मानवीय धरातल पर दलन किया गया हो, जिसे समाज में रौंदा गया हो, उसे दबाया गया हो उसे मान-सम्मान, धन-दौलत, काम-मजदूरी आदि में पनपने न दिया गया हो, उसे पल-पल अपमानित, लांछित, उपेक्षित किया गया हो, वह दलित है।
अतः दलित कौन है? दलित किसको कहना चाहिये? आदि प्रश्न हमारे मस्तिष्क पटल पर उभरकर सामने आते हैं तब ‘दलित’ शब्द को हम अपनी सुविधानुसार संकुचित एवं व्यापक दायरे से व्याख्यायित कर देते हैं। संकुचित अर्थ में ‘दलित’ वे लोग हैं जो भंगी, चमार, मांग, महार, डोम, अन्त्यज्ञ, चाण्डाल आदि जो बहिष्कृत जातियाँ हैं इन्हें उच्च वर्ग के लोग नीच समझते हैं। इन जातियों के लोग भी परम्परागत उच्च वर्ण के लोगों से स्वयं अपने आपको नीचा (तुच्छ) समझती हैं। व्यापक अर्थ में - वे लोग आते है जो खेत-मजदूर, बंधुआ-मजदूर, भूमिहीन, गरीब, बेरोजगार, महिलाएँ एवं अनाथ बच्चे ये सब किसी जाति या धर्म से सम्बद्ध हों दलित ही कहे जायेंगे। किन्तु आज के परिवेश में ये लोग वास्तविक यथार्थ से दूर हैं। क्योंकि ये सब सहानुभूति की संवेदना के पात्र होते हैं। इसके साथ जाति सूचक अपमानित करने की प्रवृत्ति नहीं होती। अतः ‘दलित’ शब्द उन लोगों के लिए रूढ़ होता गया जिन्हें पहले कभी ‘अछूत’ फिर ‘हरिजन’ (गाँधी जी के अनुसार) कहा गया। इस प्रकार डा0 अम्बेडकर ने अंग्रेजी भाषा में डिप्प्रेंस्ड एवं मराठी भाषा में बहिष्कृत तथा अस्पृश्य कहा आज वही हिन्दी में दलित है।

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डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव - क्या आज के दलित साहित्य के माध्यम से दलित अपनी अस्मिता को पहचानने का प्रयास कर रहा है। उसकी इस वर्तमान स्थिति के लिए कौन उत्तरदायी है? दलितों की वास्तविक संस्कृति क्या है? आपकी दृष्टि में दलितों के पूर्वज कौन थे?
डा0 देवदास टेम्भरे - आज अलग दलित साहित्य की मांग जिस मानसिकता से उठ रही है, उसे समझने की कोशिश साहित्यकारों को करनी चाहिये। वस्तुतः ये मेरी दृष्टि से एक अलग साहित्य की मांग नहीं है, अपितु सामाजिक प्रतिष्ठा की मांग है। इसलिए दलित साहित्यकार दलित साहित्य के माध्यम से अपनी अस्मिता को पहचानने का प्रयास कर रहा है, तो इसमें गलत क्या है।
दलित साहित्य की वर्तमान स्थिति के मूल में वर्ण-व्यवस्था, जाति-भेद और मानवीय शोषण की अहम भूमिका रही है। प्राचीन वर्ण-व्यवस्था से लेकर आज की वर्ग-व्यवस्था तक यदि दलित मानव इन यातना शिविरों का शिकार न हुआ होता तो दलित साहित्य आज जिस रूप में समृद्ध एवं प्रभावशाली बन पड़ा है, वह कभी नहीं बन पाता। हमें तो इन आततायियों का धन्यवाद (साहसपूर्ण) ही करना चाहिये कि ये मानव-मानव का शोषण यदि न करते तो दलित साहित्य का सृजन जो आज है इतना समृद्ध एवं विशाल है, नहीं हो पाता। मैं यह दाबे के साथ कह सकता हूँ कि दलित साहित्य वर्ण-व्यवस्था, जाति-पाति और मानवीय शोषण के विरूद्ध एक साहित्यिक जनान्दोलन है। जिसके मूल में (प्रेरणा-स्रोत) क्रांतिवीर महात्मा ज्योतिषा फुले एवं क्रांतिदर्शी डा0 भीमराव अम्बेडकर ही हैं।
भारतीय समाज, संस्कृति और इतिहास जिस रूप में आगे बढ़ रहा था उसमें दलितों की संस्कृति एवं समाज भिन्न था। उस जमाने में दलितों को पढ़ने-लिखने की सुविधा नहीं थी, तो वे अपने बारे में साहित्य सृजन कैसे करते? शिक्षा और संस्कृति पर अत्यधिक बल देते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - हिन्दुओं के अधःपतन का कारण शिक्षा और संस्कृत को एक वर्ण तक सीमित रखना ही है।’’ अतः इस स्थिति के लिए मनुवादी संस्कृति ही उत्तरदायी है। इसलिए दलित साहित्य के रूप में वही साहित्य मिलता है, जो दलितों के बारे में गैर-दलितों ने लिखा है। वास्तविकताओं को स्वानुभूति के अपेक्षाकृत सहानुभूति के साथ व्यक्त करना अलग बात है। क्योंकि उसमें प्रामाणिकता नहीं होती, अपितु स्वानुभूति की पुनर्रचना से उपजे साहित्य में होती है। अतः दलित साहित्य के प्रेरणा-स्रोत हमारे पूर्वज महात्मा ज्योतिषा फुले एवं डा0 अम्बेडकर जी हैं।
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डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव - आपकी दृष्टि में दलित साहित्य की सीमा क्या है? अर्थात् दलित साहित्य की वैचारिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए?
डा0 देवदास टेम्भरे - दलित साहित्य के भव्य भवन का शिलान्यास यद्यपि डा0 अम्बेडकर से पूर्व महाराष्ट्र में महात्मा ज्योतिषा फुले के साहित्य ‘गुलाम गिरी’ एवं ‘सतसार इशारा’ से हो चुका था। तथापि इस भवन को सुदृढ़ समृद्ध एवं गगनचुम्बी बनाने का कार्य डा0 अम्बेडकर के जीवन-संघर्षों के यथोचित प्रयास से ही सम्भव हो सका है।
दलित साहित्य के इस विशाल भवन की नींव में आत्मकथा या जीवनी लेखन मील का पत्थर साबित हुई। कदाचित डा0 अम्बेडकर की आत्मकथा ‘मी कसा झालो’ (मैं कैसे बना) आधुनिक काल में दलित साहित्य आन्दोलन की प्रथम रचना कही जा सकती है। इसके बाद दलित साहित्य की गूंज हीरा डोम की ‘अछूत की शिकायत’ 1914 में भी देखी जा सकती है।
निःसन्देह दलित साहित्य की उपलब्धि का भण्डार विपुल मात्रा में साहित्य की हर विधा में परिलक्षित होता है। दलित चेतना कर्म की विकास यात्रा आज जिस गति और त्वरा के साथ विकासमान है, इससे पुराने मनुवादी सामाजिक ढाँचे के साहित्यकारों को नये रास्ते तलाशने होंगे। सुप्रसिद्ध कहानीकार स्व. कमलेश्वर ने अपनी बेबाक टिप्पणी करते हुए कहा था कि 21 वीं सदी में दलित साहित्य एक बड़ी शक्ति बनकर उभरेगा। दलित साहित्य अकादमी के अध्यक्ष डा0 सुमनाक्षर ने 21 वीं सदी को दलित साहित्य की सदी कहा है।
अतः 20 वीं सदी भारत में दलित चेतना (मुक्ति चेतना) की सदी रही, अब 21 वीं सदी दलित-साहित्य की ही होगी। क्योंकि दलित साहित्य जमीन से जुड़े शोषित, पीड़ित, मर्दित, उपेक्षित, लांक्षित, पद-दलित जिन्दा एवं असहाय लोगों का साहित्य है। इसके लेखन की कोई सीमा नहीं है। यह एमिल जोला, गोर्की, एच. जी. वेल्स, हेनरी मिलर, जार्ज आर्वेल की टक्कर का साहित्य है और यही साहित्य शाश्वत एवं सत्य है।
दलित साहित्य की वैचारिक पृष्ठभूमि में निषेध, नकार एवं विद्रोह की भावना निहित है। क्योंकि इसकी वैचारिक पृष्ठभूमि में महात्मा ज्योतिषा फुले एवं डा0 अम्बेडकर के द्वारा प्रतिपादित क्रांति-दर्शन के ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक पहलुओं पर विचार करना अत्यावश्यक है। क्योंकि फुले-अम्बेडकर दर्शन ही दलित साहित्य की वैचारिक पृष्ठभूमि है।
दलित-साहित्य दलित जीवन की विपदाओं का वास्तविक चित्रण है। दरिद्रता, गंदी-बस्तियां, भूख, पीड़ा, वेदना, अंधकारमय वर्तमान आदि का यथार्थ वर्णन दलित काव्य की वैचारिका है। दलित साहित्य संघर्ष को कार्यान्वित नहीं करती, फिर भी उसका गहरा सम्बन्ध परिवर्तनशीलता एवं संघर्षशीलता से ही है। दलित साहित्य का वैचारिक आधार पूर्व परम्पराओं को नकारकर नई परम्परा विकसित करना है। अतः दलित साहित्य ने अपनी वैचारिकता से यह सिद्ध कर दिया है।
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डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव - डा0 साहब (टेम्भरे जी) दलित साहित्य की सामाजिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिये।
डा0 देवदास टेम्भरे - दलित साहित्य की सामाजिक पाश्र्वभूमि में समाज, सत्ता और संस्कृति की विचारोत्तेजक बहस यह बताती है कि हमारा सामाजिक अध्ययन अनुसंधान और चिंतन ‘समरथ को नहि दोष गुसाई’ के साहित्यिक दलालों पर टिका है। इनकी बगुला दृष्टि प्रवचनार्थ शास्त्र आधारित होती है, समाज-सापेक्ष नहीं। प्राचीन काल से आज तक की वर्ग-व्यवस्था तक ‘ब्रह्म सत्यम् जगत मिथ्या’ के आधार पर समाज को एक दम गायब कर वैदिक मनुवादियों ने सोपानिक और काल्पनिक चतुर्यण्र्य का शास्त्रीय समर्थन किया है। किन्तु दूसरी ओर कुछ ऐसे भी समाज शास्त्रीय चिंतक थे जिनके चिंतन के केन्द्र में शास्त्र नहीं, समाज था। सचमुच समाज शास्त्रीय अध्ययन अनुसंधान और चिंतन मूल रूप से नकलची प्रवचन कत्र्ताओं का समाजशास्त्र था। जहाँ से बहुसंख्यक, श्रमिक, उत्पादक, वर्ग, दलित, शोषित, पीड़ित एवं पिछड़ी, लिथड़ी और खिचड़ी जातियों की सामाजिक अनुभूतियों को गायब कर दिया गया। इन्हें समाज से एकदम अलग कर दिया गया। तब डा0 आम्बेडकर की चिंतन-प्रेरणा ने दलित-चिंतकों में एक चेतना जागृत हुई और विभिन्न राज्यों में समाजशास्त्रीय अध्ययन-अनुसंधान और चिंतन से जुड़े महत्वपूर्ण प्रश्नों को उठाया।
दलित साहित्य की सामाजिक पृष्ठभूमि विद्रोह, शोषण और विषमता के विरूद्ध उठ खड़े होने में है। वहाँ उसका नकार ‘मुझ पर जो जबरन लादा गया है’ वह उत्तम फेंक देने के लिये है - को दर्शाता है और इसी दृष्टि से दलित साहित्य की परिकल्पना करने की नितान्त जरूरत है। दलित साहित्य की समाज शास्त्रीय परिकल्पना के संबंध में मैं यह कहना चाहूँगा कि दलित समस्या आर्थिक नहीं धार्मिक और सामाजिक है। अतः भारत में सिर्फ डा0 अम्बेडकर ही प्रथम गैर-ब्राह्मण और गैर-द्विज समाजशास्त्री थे, जिन्होंने दलित समस्या को मूल रूप से ठीक से समझा था। उन्होंने वर्ण-व्यवस्था को एक वाहियात (बकवास) व्यवस्था माना था और इस बात पर विशेष बल दिया था कि वर्ण-व्यवस्था का उन्मूलन ही जाति भेद का उन्मूलन है।
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डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव - कुछ आलोचकों का मानना है कि दलित चिंतकों को इतिहास एवं साहित्य में वह स्थान नहीं मिल पाया है, जो उनको मिलना चाहिये- (जैसे-रैदास, कबीर, बाबा साहब, जगजीवन राम) अर्थात् इन चिंतकों के साथ उपेक्षा की गई। इस बात पर अपनी टिप्पणी कीजिये?
डा0 देवदास टेम्भरे - इस फैशनपरस्ती आधुनिकता में लोकतांत्रिक विचारों, मूल्यों और समानता के अधिकारों के बावजूद जातिवाद (अर्थात् ब्राह्मणवादी समाज का) अपरिहार्य अंग बन गया है। एक बात मुझे समझ में नहीं आती कि दलितों को ही अपनी प्रतिभा के प्रामाणिक सबूत समय-समय पर क्यों देना पड़ता है। यह निर्विवाद सत्य है कि कुछ तथाकथित मनुवादी लेखकों एवं साहित्यकारों के द्वारा रैदास, कबीर, बाबा साहब आम्बेडकर एवं जगजीवन राम आदि बहुआयामी व्यक्तित्व को इतिहास एवं साहित्य में वह स्थान नहीं मिल सका, जो उनको प्राप्त था।
संत शिरोमणि रैदास (रविदास) जी अनपढ़ों से शिक्षितों तक की जरूरत बने। वे एक स्वायत्त व्यक्ति थे तो एक सामाजिक प्रवाह के प्रवक्ता भी। हिन्दी हृदय क्षेत्र से उनकी वाणी और विचारधारा दूर-दूर तक पल्लवित हुई। कबीर एवं रैदास जी ने अपनी विचारधारा से ‘लोक’ और ‘शास्त्र’ को जोड़ते हुए वेदों एवं शास्त्रों को चुनौती तक दे डाली थी। रैदास जी को तो कहना पड़ा कि ‘‘चारों वेद करो खण्डौति, गुरू रविदास करो दण्डौति’’।
अंग्रेज कवि मैक्समूलर ने तो ‘वेदों को गड़ेरियों का गीत’ तक कह डाला था।
जिस भक्ति साधना के माध्यम से कबीर, रैदास जी दलित वर्गों को शामिल कर रहे थे आज के परिप्रेक्ष्य में डा0 आम्बेडकर एवं कुछ हद तक बाबू जगजीवन राम की दृष्टि से देखने की जरूरत है। अतः संत कबीर, रैदास की चिंतन-शक्ति एक जलाशय ही नहीं, बहता हुआ नीर है और उस प्रवाहमान नीर के महात्मा फुले, डा0 आम्बेडकर एवं बाबू जगजीवन राम एक स्रोत (झरना) हैं।
कबीर एवं रैदास के 600 सौ वर्षों से अधिक समय से क्या इस देश का अपने आपको सवर्ण समझने वाला साहित्यकार चमार, महार, भंगी, बाल्मीकि, पासी आदि जाति के लोगों को उनकी दयनीय मानसिकता से मुक्ति दिला सका? गाँधी जी द्वारा दिया गया ‘हरिजन’ शब्द अपनी सारी गरिमा खोकर ‘अछूत’ का पयार्यवाची मात्र बनकर नहीं रह गया? अतः रैदास, कबीरदास, बाबा साहब अम्बेडकर एवं जगजीवन राम अपने जीवन काल में कितने सार्वजनिक थे और आज की सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक एवं साहित्यिक व्यवस्था में उनका क्या स्थान है यह किसी से छुपा नहीं है। आज हैरानी इस बात की है कि ‘‘जो कर्म द्विजों के लिए धर्म है, वही कर्म इन दलित चिंतकों के लिए पाप कैसे हो गया ?’’
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डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव - भारत में (संसार) यह कहा जाता है कि यहाँ जाति व्यवस्था एक अभिशाप है और प्रगति में बाधक है क्योंकि यहाँ ऊपर से लेकर नीचे तक (चार्तुवण्र्य व्यवस्था) हर जाति अपने से नीचे एक और जाति खोज लेती है। इस मत से आप कितना सहमत हैं और क्यों?
डा0 देवदास टेम्भरे - भारत में जाति का श्रेणीकरण इतना अधिक है कि दलितों में महादलित कौन है? यही जाति-व्यवस्था (वर्ण-व्यवस्था) का दुष्चक्र है। जाति व्यवस्था के इतने वर्गीकरण हैं कि हर एक जाति अपने से नीचे और एक जाति खोज लेती है, जिससे वह अपनी जाति को बड़ा समझती है? अब प्रश्न यह उठता है कि महारों में कौन महार? चमारों में कौन चमार, दुसाधों में कौन दुसाध। राजपूतों में कौन राजपूत, ब्राह्मणों में कौन ब्राह्मण-कनौजिया या सरयूपारिज। जाति-व्यवस्था की यही आधारभूत खूबी है। जातिवादी व्यवस्था में दलितों को लोकतंत्र में जगह तो मिली, कुछ अधिकार भी मिले, किन्तु जाति-व्यवस्था एक सामाजिक अभिशाप है यह देश की, समाज की, मानवता की प्रगति में बाधक है। इससे स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व की भावना को ठेस पहुँचती है। आज की व्यवस्था में साहित्य, समाज और राजनीति में जहर बन गई ‘जाति’ के सवाल पर डा0 आम्बेडकर के चिंतन को अलग करके नहीं समझा जा सकता ? उन्होंने लाहौर के जाति-पांत-तोड़क मण्डल’ के 1936 के सम्मेलन के लिए अपने अध्यक्षीय भाषण के लिए ‘जाति भेद का उच्छेद’ नामक भाषण लिखा था, जो नहीं पढ़ा गया क्योंकि वह सम्मेलन गाँधी जी की सहमति से रद्द कर दिया गया था। अतः स्पष्ट है कि इस देश से जब तक वर्ण-व्यवस्था कायम रहेगी, तब तक जाति भेद एवं अस्पृश्यता बनी रहेगी।
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डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव - डा0 साहब (टेम्भरे) दलित साहित्य के निहितार्थ क्या हैं?
डा0 देवदास टेम्भरे - दलित साहित्य के निहितार्थ का मुख्य उद्देश्य सामाजिक परिवर्तन एवं समकालीन समाज की संरचना का है। जिसका आधार स्तम्भ ‘शिक्षित बनो’ संगठित हो और संघर्ष करो’ के मूल मंत्र के साथ समता, स्वतंत्रता एवं समानता वाले बहुजन हिताय के निहितार्थ में ही दलित साहित्य का सृजन सम्भव हो सका है।
दलित साहित्य के निहितार्थ-दलित समाज जो सामाजिक, धार्मिक, शैक्षिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से आज तक अभिशप्त है, उसे जागृत करके पुरानी परिपाटी को जो दलितों के मार्ग में बाधक है, उन्हें ध्वंस करने, प्रोत्साहित करना, भाग्य-भगवान एवं भय पर भरोसा न कर अपने दम पर आगे बढ़ना है, इसके लिए उच्च शिक्षा प्राप्त करने को प्रोत्साहित करना है। जन्म-मरण, ढोंग-ढकोसला, अंधविश्वास को नकारना ही दलित साहित्य के निहितार्थ हैं।
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डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव - दलित साहित्य में दलित चिंतन से सम्बन्धित मुक्ति का प्रश्न आज अपना विशिष्ट स्थान रखता है? यह दलित मुक्ति का प्रश्न क्या है?
डा0 देवदास टेम्भरे - जैसा कि भारत के प्रायः सभी लोग यह जानते हैं कि गाँधी जी अंग्रेजी दासता के विरूद्ध भारत-मुक्ति की लड़ाई लड़ रहे थे और डा0 अम्बेडकर दलित मुक्ति की। डा0 अम्बेडकर की दृष्टि में दलितों की मुक्ति का प्रश्न मानवीय अधिकारों का प्रश्न था, जिनसे वे सदियों से वंचित थे। अतः जब भारतीय हिन्दुओं को अंग्रेजी की दासता स्वीकार नहीं थी तो दलितों को हिन्दुओं की दासता कैसे स्वीकार हो सकती थी? यह सच है कि अंग्रेजी सत्ता से सभी भारतीय मुक्त होना चाहते थे, तो हिन्दुओं की सत्ता से दलित। इसी विचारधारा से दलित साहित्य में दलित चिंतन से सम्बन्धित दलित-मुक्ति का प्रश्न आज भी अपना एक विशिष्ट महत्व रखता है क्योंकि दलित साहित्य आन्दोलन दलित मुक्ति आन्दोलन के अस्पृश्यता विरोधी आन्दोलन का साहित्यिक रूप है। अतः दलित साहित्य ‘शिक्षित बनो, संगठित हो और संघर्ष करो’ के सूत्र पर आधारित है। दलित वर्ग जब तक इन सूत्रों पर अमल नहीं करेगा, आत्म-सम्मानपूर्ण मुक्ति नहीं पा सकता। वैचारिक विकृतियों के कारण मानव द्वारा प्रताड़ित प्रभ्रमित एवं अधिकार वंचित मानव की मुक्ति के लिए आदिकाल से प्रज्ञाशील मानवतावादियों का संघर्ष अनवरत चलता रहा है। चार्वाक, बृहस्पति, बुद्ध, सरहपा, संत कबीर, रैदास, महात्मा फुले एवं डा0 अम्बेडकर की परम्परा आज भी गतिमान है और यही दलित मुक्ति की परम्परा दलित साहित्य की आधार शिला है।
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डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव - क्या आप यह समझते हैं कि वर्तमान में सामाजिक क्रांति के लिए दलित साहित्य की आवश्यकता है? परम्परा की इस प्रासंगिकता पर अपने विचार व्यक्त कीजिए?
डा0 देवदास टेम्भरे - आधुनिक भारत के इतिहास में सामाजिक क्रांति के सूर्य ‘राष्ट्रपिता’ ज्योतिवा फुले एवं उनके मानस शिष्य ‘भारत रत्न’ बाबा साहब डा0 आम्बेडकर के जीवन एवं जीवन-दर्शन के वैचारिक धरातल पर भारत की विभिन्न भाषाओं में सामाजिक सरोकारों से सम्बद्ध दलित साहित्य का सृजन हुआ। यह सत्य है कि महाराष्ट्र मे सामाजिक सुधार आन्दोलनों से ही दलित साहित्य विकसित हुआ जबकि हिन्दी में ऐसा कोई बड़ा परिवर्तनकारी आन्दोलन नहीं हुआ। साहित्य समाज का दर्पण ही नहीं है, अपितु सामाजिक क्रांति के लिए युवाओं में वह जोश, उत्साह भरने का भी काम करता है जो शक्ति गोला, बारूद और बन्दूक में नहीं वह साहित्य से ही मिलती है।
हिन्दी के साहित्यकारों की एक लम्बी परम्परा साहित्य सृजन की है। जैसे प्रेमचन्द, निराला, नार्गाजुन आदि के साहित्य में वर्ग-भेद और वर्ग-संघर्ष की झलक तो यत्र-तत्र मिल जाती है, किन्तु ज्योतिषा फुले की ‘गुलाम गिरी’ और ‘सत्सार इशारा’ वाली वह सामाजिक संघर्ष चेतना नहीं मिलती है, जिसको बाद में बाबा साहब डा0 अम्बेडकर एवं पेरियार ई. वी. रामा स्वामी ने बहुत हद तक पल्लवित किया।
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डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव - डा0 साहब वर्तमान में दलित साहित्य का समाज पर कितना असर पड़ रहा है कुछ उदाहरण एवं अनुभवों की हमारे साथ शेयर कीजिये?
डा0 देवदास टेम्भरे - आज दलित वर्गो में ‘जय राम’ के स्थान पर‘जय भीम’ एवं राष्ट्रपिता गांधी जी की जगह राष्ट्रपिता महात्मा ज्योतिवा फुले कहने का जो प्रचलन बड़े तेजी से एवं सम्मानपूर्ण बढ़ता जा रहा है, इसके मूल में दलित साहित्य ही तो हैं। आज दलित समाज जितना शिक्षित, जागरूक और विकसित हो सका है, उसका श्रेय न तो हिन्दू संगठनों को जाता है, न कांग्रेस को और न बामपंथियों को जाता है।, जाता है, तो यदि इसका श्रेय किसी को सिर्फ महात्मा ज्योतिवा फुले एवं बाबा साहब डा0 अम्बेडकर को ही।
दलित साहित्य का समाज पर जो गहरा प्रभाव आज परिलक्षित हो रहा है उसके कई कारण हैं। दलित-चेतना और उसके साहित्य को क्यों जन्म लेना पड़ा - इसके ऐतिहासिक कारणों को खंगालना होगा। दलित साहित्य एकाएक उठ खड़े ज्वार-भाटे का परिणाम नहीं है। यह तो सदियों से निषेध और नकार की पीड़ा का साहित्य है। अतः दलित साहित्य दलित जीवन की विषम परिस्थितियों से जूझते और टूटते मानव को आत्मबल और सम्बल प्रदान करने का साहित्य है।
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डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव - आज का दलित लेखन सवर्ण-एवं गैर सवर्ण के बीच टकराहट के दौर से गुजर रहा है। अर्थात् साहित्य में खेमें बाजी शुरू हो गई है। इसका प्रतिफल क्या हो सकता है।
डा0 देवदास टेम्भरे - पहले के तरह आज भी दलित लेखन की वही स्थिति है, जो समाज में दलित और सवर्णों की सामाजिक संरचना और भौतिक परिवेश में है। इसलिए अगर हिन्दी साहित्य में किसी दलित लेखक को वह स्थान नहीं मिल सका, जो उसे प्राप्त होना चाहिये था, दुःखद भले ही लगता है, लेकिन आश्चर्यजनक नहीं। साहित्य के क्षेत्र में सवर्ण लेखकों के वर्चस्व और दलित लेखकों के वर्चस्व और दलित लेखकों के लेखन से यही साबित होता है कि साहित्य में भी खेमेबाजी चर्मोत्कर्ष पर है। खेमेबाजी का ताजा उदाहरण ‘रंगभूमि’ कृति-दहन के समय हंस के सम्पादक राजेन्द्र यादव और भारतीय दलित साहित्य के अध्यक्ष डा0 सोहनपाल सुमनाक्षर के बीच का द्वन्द है। ऐसी अनेक खेमेबाजी हिन्दी साहित्य में देखने को मिलती है। जैसे - आचार्य राम चन्द्र शुक्ल ने कबीर को ‘गंवार’ कहा। प्रख्यात लेखक अज्ञेय ने’’ निराला इज डेड ’की उदघोषणा 1946 में ही की थी। रामविलास शर्मा ने यशपाल को साड़ी जंफरवादी लेखक तक कह डाला। खुशवत सिंह ने प्रेमचन्द्र के गोदान को ‘फालतू’ कह दिया। और तो और समालोचक डा0 नामवर सिंह जी ने कवि पंथ के चैथाई काव्य को ‘कूड़ा’ कह दिया।
साहित्य में इस तरह खेमेबाजी ठीक नहीं है। साहित्यिक खेमेबाजी विचार गोष्ठी या सेमिनारों में होना चाहिये जिससे दलित लेखन सवर्ण एवं गैर सवर्ण लेखन के बीच की टकराहट को आम सहमति से दूर किया जा सकता है।
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डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव - जैसा कि मुद्राराक्षस जी का कहना है कि ‘गैर दलित लेखकें को ऐसी कौन- सी जरूरत पड़ गई दलित लेखन में टाँग अड़ाने की।’ अर्थात् दलित साहित्य के लेखन में सवर्ण लेखकों का कोई सरोकार भी है या सिर्फ छपास रोग के लिये वे इस क्षेत्र में भी दो-दो हाथ करना चाहते हैं इस पर आप कहाँ तक सहमत हैं और क्यों ?
डा0 देवदास टेम्भरे - दलित-लेखन और सवर्ण रचना संसार’ शीर्षक से अपने लेख में मुद्रा राक्षस जी ने यह साफ कर दिया है कि ‘सवर्ण बु़द्धजीवी की समूची करूणा में कहाँ सुराख रह जाता है और कहाँ वह अन्ततः करूणा से अधिक सामन्ती उदारता बन जाती है, यह सिर्फ दलित ही जान सकता है। आगे उन्होंने कहा है कि लोहे (जंजीर) का स्वाद उस घोड़े से पूछो जिसके मुँह में लगाम है, लगाम के स्वाद की पहचान जितनी कसैली और घाव करने वाली घोड़े को होती है, घोड़े के सवार को नहीं। ’दलित लेखन का सच यही है, और दलित लेखन का यथार्थ भी।
गैर दलित लेखक दलित साहित्य को साहित्य मानते ही नहीं। इसका एक मात्र कारण यही हो सकता है कि गैर दलित लेखकों को दलित लेखन में अपेक्षित सफलता नहीं मिली। क्योंकि उनके पास दलित जीवन की नकार, वेदना और यातना भरे दर्द नहीं होते उनका लेखन मात्र सहानुभूतिपूर्ण होता है अनुभूतिपूर्ण नहीं। इसीलिये सवर्ण लेखकों को इस बात की खीझ होती है कि उन्हें दलित लेखन में असमर्थ क्यों माना जा रहा है। दलित लेखन वास्तविकता से दलित लेखक ही कर सकता है, सवर्ण लेखक नहीं। इस बात से उन्हें बेहद अफसोस है। यह बात नहीं कि दलितों के सम्बन्ध में सवर्ण लेखकों ने भी कलम न चलाई हो। लेकिन उनकी कलम में वह धार नहीं है जो एक दलित लेखक की कलम में होती है।
निःसंन्देह दलित साहित्य लेखन में सवर्ण साहित्यकारों का सरोकार भोगे हुए अतीत का नहीं है, अपितु अनुकम्पा से ऊपजी सहानुभूति है। ऐसा साहित्य यथा स्थितिवादी होता है, सुधारवादी नहीं। अतः गैर दलितों का रचना कर्म सतही माक्र्सवादी, जनवादी और प्रगतिशीलता से भले ही लबालब हो, किन्तु वह शत-प्रतिशत मनुवादी (बाह्मणवादी) ही होता है। जैसे-पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ मृत मनुष्यानंद (बुधुवा की बेटी) उपन्यास को डा. भवदेव पाण्डेय ने दलित चेतना का प्रथम सूर्योदय कहा है (वर्तमान साहित्य-अक्टू, 1999) रांगेय राघव का ‘कब तक पुकारूँ, भगवती चरण वर्मा का उपन्यास ‘भूले बिसरे चित्र’, भैरव प्रसाद गुप्त का सत्ती मैया का चैरा’ राम दरश मिश्र का ‘सुखता हुआ तालाब’ जगदीश चन्द्र का ‘धरती धन न अपना’, अमृत लाल नागर का ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’, गिरिराज किशोर का ‘परिशिष्ट’, मधुकर सिंह का ‘जँगली सुअर’, श्रवण कुमार गोस्वामी का ‘चक्रव्यूह’ आदि रचनाएँ सवर्णवादी मानसिकता से ग्रसित हैं। इसमें दलित सहानुभूति का हौवा खड़ा कर दलितों की यथास्थितिवाद को बनाये रखा गया है।
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डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव - दलित साहित्य का स्वरूप (समीक्षा का) क्या है स्पष्ट कीजिये?
डा0 देवदास टेम्भरे - किसी भी साहित्य का स्वरूप सर्जक की प्रेरणा, प्रवृत्ति, आन्तरिक आवश्यकता से अनुभूत जीवन-संदर्भ, अभिप्रेत पाठक-वर्ग तथा उसके द्धारा अपनाई गई विद्या के ताने-बाने से निर्मित होता है। अपनी घुटन को व्यक्त करना, दलित वर्गों पर आज तक जो अन्याय हुआ, को वाणी देना; वेदना और विद्रोह के साथ प्रतिकार करना दलित साहित्य के मुख्य प्रयोजन हैं। साहित्य लेखन के प्रगतिशील आन्दोलन के कर्णधारों ने यदि अमीरी-गरीबी, शोषक-शोषित, अंधेरे-उजाले और विकास की विद्रूपताओं को शब्द देने के साथ-साथ जाति प्रथा, सवर्ण-अवर्ण और पुरोहित वर्ग द्वारा किये जा रहे अत्याचारों के खिलाफ तेजाबी अभिव्यक्ति दी होती तो आज न केवल साहित्य बल्कि कहना चाहिये कि समाज का स्वरूप कुछ और भी होता।
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डा0 वीरेन्द्र सिहं यादव - आप दलित लेखन कब से और क्यों कर रहे हैं आप अपने व्यक्तित्व-कृतित्व के बारे में प्रकाश डालिए। जीवन के दग्ध अनुभवों को विस्तार से बताएं। नये दलित लेखकों/चिंतकों को क्या संदेश देना चाहते हैं।
डा0 देवदास टेम्भरे - मनुष्य के विकास में उसके परिवार तथा पारिवारिक वातावरण का विशेष महत्व होता है। शैशव के दिनों की मुझे जब कभी याद आती हैं तो निश्चय ही हृदय कांप उठता है। शैशवास्था में ही पितृविहीन होने के कारण जीवन के बीहड़ अरण्य में न जाने कितनी बार मेरी मंजिल ने मेरा साथ छोड़ा होगा। परन्तु मेरे कुछ शुभ चिंतक मुझे समय-समय पर मार्गदर्शन कराते रहे। जिससे मुझे साहस मिलता गया, मुझमें आत्म शक्ति का क्रमशः विकास होता गया, जिसका वरदान मुझे एक महाविद्यालय के प्राध्यापक के लेबिल के रूप में मिला।
मेरा जन्म गाँव के एक दीन-हीन दलित (महार) परिवार में हुआ। जिन्दगी भर आत्मनिर्भर होकर गाँव से लगभग 20-25 मील दूर मामूली शहर में विश्वविद्यालयी शिक्षा। पारिवारिक स्नेह से अनभिज्ञ तथा जन्म से ही दुःखद वातावरण में रहने के कारण दुःख ने मेरे साथ छाया की तरह दोस्ती की। मैंने भी उसका सम्मान किया।
मेरी अब तक कोई किताब या रचना प्रकाशित नहीं हो सकी। इसमें मेरी लापरवाही ही कहना चाहिये। हाँ समय-समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में मेरे लेख (दलित-साहित्य से सम्बद्ध) अवश्य छपते रहे हैं। तथा दलित साहित्य से सम्बद्ध कुछेक राष्ट्रीय सेमिनारों में मेरी उपस्थिति अवश्य रही है।
दलित लेखन की तरफ मेरा रूझान मेरे डी. लिट् शोध से सम्बंधित है, जिसकी प्रेरणा मुझे पटना के जाने माने साहित्यकार एवं विद्वान डा0 कुमार विमल से मिली जिनके दिशा-निर्देश ने मुझे दलित लेखन की ओर प्रवृत्त किया।
वर्तमान में दलित लेखन में एक नई पीढ़ी नए सवालों के साथ दलित साहित्य को समृद्ध कर रही है। वे दलित साहित्य के साथ साहित्य में दलित आन्दोलन को भी प्रेरित कर रही है। साहित्य, समाज और राजनीति में दलितों के जो नये-नये समीकरण बन रहे हैं उससे राजनीति तो प्रभावित हो ही रही है साथ ही साथ दलित-साहित्यकार दलित साहित्य की विकास यात्रा में सामाजिक परिवर्तन की चेतना को नये सिरे से परिभाषित भी कर रहे हैं। मुझे आशा ही नहीं, प्रत्युत् विश्वास है कि नवोदित दलित साहित्यकार दलित-साहित्य-चेतना की समृद्धि के लिए कटिबद्ध होंगे। दलित साहित्य लेखन तब तक अबाधगति से जारी रहेगा जब तक भारत में दलित और सवर्ण का भेद कायम है। अतः दलित-साहित्य लेखन की सम्भावनाएँ एवं आने वाला समय काफी उज़्ज़वल है। दलित रचनाकार खूब लिखें, लिखने से ज्यादा पढ़ें और उससे भी ज्यादा चिंतन करें जिससे दलित साहित्य लेखन में गहराई, परिपक्वता आयेगी और दलित साहित्य को नये आयाम दे सकने में कारगर हो सकेंगे।

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