17 मई 2009

पुस्तक समीक्षा - ठनी साँप नौरा में

पुस्तक - ठनी साँप-नौरा में
सम्पादक एवं लेखक-श्यामबहादुर श्रीवास्तव
समीक्षक-डा0 अवधेश चंसौलिया

बुन्देली काव्य संकलन ’ठनी साँप-नौरा में’ बुन्देली समय एवं समाज का जीवन्त दस्तावेज है। यह एक ऐसा दर्पण है जिसमें बुन्देली क्षेत्र और समाज का स्वच्छ प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। बुन्देली अंचल में कश्मीर जैसा सौन्दर्य नहीं है, सुकोमलता नहीं है लेकिन जो खुरदुरा सौन्दर्य है, अनगढ़ सौन्दर्य है, उसकी अपनी विशिष्टता है, उसका अपना अनूठापन है। बुन्देली की अक्खड़ता में अल्हड़ता का एक अलग सौन्दर्य है।
फटेहाल रहकर भी मस्त रहना, बुन्देली लोगों से सीखा जा सकता है। कद-काठी और शक्ति में विन्ध्यांचल के पहाड़ों जैसे ’सौ दण्डी एक बुन्देलखण्डी’। छत्रसाल ने मुगलों को, रानी लक्ष्मीबाई ने अंगे्रजों को नाकों चने चबवा दिये। विषम परिस्थितियों ने इन्हें और मजबूत बना दिया। संकलन के कवि ने बुन्देलन की वीरता का चित्र कुछ इसी तरह सींचा है -
‘‘जा धरती रनधीरन की बल वीरन की जननी सुखदाई।
देखी सुनी नहिं और कहँ नित ओजमयी महिमा जग छाई।।
छत्तरसाल महीपत की कविराजन ने विरुदावलि गाई।
झाँसी की रानी यहीं उपजी जननी कृत कृत्य भई जब जाई।’’
बुन्देलखण्ड विकास की दृष्टि से आज भी पिछड़ा हुआ है। यहाँ अशिक्षा, गरीबी और रूढ़ियों का साम्राज्य है जो सामथ्र्यवान हैं वे शोषक हैं। ’चटई और रोटी’ कविता में डा0 चुन्नीलाल ने खेतिहर मजदूर की व्यथा का बहुत कारुणिक दृश्य उपस्थित किया है। उसके पास स्वयं की एक मैड़ भी नहीं है, दिन भर की मजूरी में मात्र तीन सेर ज्वार मिलती है उससे इतने बड़े घर का खर्चा कैसे चले? सरकार भी भूमिहीनों को खेत देने की झूठी विज्ञापनबाजी करती रहती है, पर देती कुछ नहीं है। इसी तरह का यथार्थ ’हरविलास प्रजापति की रचना ’साँपन से खतरा अभऊँ नई टलौ’ में दृष्टिगत होता है। उनकी दृष्टि में विकास का नारा खोखला और झूठा है क्योंकि-
‘‘चारउ लगाँ कछार में चैधरियन के खेत।
समता आ गइ देश में कोरी गप्पे देत।।’’
बुन्देलखण्ड में अपसंस्कृति का जोर बढ़ रहा है, राजनीति गुण्डों की भरमार हो गई है, वे समाज में मनमानी कर रहे हैं, लोगों का जीना दूभर हो गया है। मकसूद आलम ठीक ही कहते हैं-’’गुण्डन को भव राज इतै अब का कहें भइया। बेई बने महाराज इतै अब का कहे भइया।।’’ नवल किशोर स्वर्णकार की काव्य रचना ’’भलमंसई अब कितउँ न सूझै’’ में भी अपसंस्कृति को खूब कोसा गया है। समाज में तो अब बुराइयों का भण्डार है, पर अच्छाइयाँ लुप्तप्राय है। सांप तो बहुत हैं पर नेवलां में आर-पार की लड़ाई हो रही है। लेकिन यह लड़ाई लम्बी चलेगी। क्योंकि सांप एक तो संख्या में बहुत है, दूसरे उनके पास तरह-तरह के जहरीले जहर भी हैं और नेवलों के पास बचाव की मुद्रा ही है, फिर भी नेवला ने हार नहीं मानी है, संघर्ष कर रहे हैं स्वच्छ समाज के लिए। ’‘बड़ो मच्छ छोटे को खा रओ, ठनी सांप नौरा में’’ इस संघर्ष में नेवला की जीत होगी तो समाज में खुशहाली होगी, प्रेम होगा, सौहार्द होगा, समानता होगी और अमन चैन होगा। इसलिए मनमोहन लाल पाण्डेय ’’संग देव नौरन को’’ का आह्वान कर रहे हैं।
आज समाज में ईष्र्या-द्वेष, छीना-झपटी, मार-धाड़, अत्याचार-अनाचार और भ्रष्टाचार का जोर है। इनसे निजात पाने के लिए लोगों को नेवला बनना पड़ेगा। निर्बल को लोग जीने नहीं दे रहे हैं, बुरे वक्त में कोई साथ देने वाला नहीं है, रक्षक ही भक्षक बने हुए हैं, चारों ओर आतंक है, डाकुओं और नेताओं तथा पुलिस में आपस में खूब पट रही है और जनता इससे तंग है। यह है आज के बुन्देलखण्ड की झांकी। ’’बिन्नू गईं ससुरारै’’ कैसे होय ब्याव बिन्नू को’’ कवितायें पारिवारिकता से पूरित है। इनमें परिवार के खट्टे मीठे अनुभवों की दुनिया है। दोहे, गजलें और कुण्डलियों एवं नवीन विधा हाइकू बुन्देली जनजीवन की विविधताओं को संजोये अपनी बात अलग ढंग से और प्रभावी रूप में करते दिखाई देते हैं। डा0 भगवत भट्ट एवं श्याम बहादुर श्रीवास्तव ’श्याम’ के हाइकू बुन्देली नेह, बुन्देली तीज-त्यौहार, ककरीली-पथरीली गन्ध और अनमनेपन की हुरदंगी अपनी सहजता के साथ समाहित किये हैं। इनमें बुन्देली की मिठास का स्वाद है, वह अवर्णनीय और अनिर्वचनीय है। भट्ट जी के हाइकू-’’दिया बार ले। लरका रोय रओ। बाय पार ले।।’’, ’’टेसू-झिंझियाँ, सजी है मामुलिया, खेलें विटियाँ’’ इसी तरह श्याम जी के हाइकू-’भांग-धतूरो, पेल के पिबन दो, होरी है होरी’’, ’’जीजा जू आये, पनारे में पटकौ, होरी है होरी’’ आदि में बुन्देली जीवन की मस्ती भरी जिन्दगी के चित्र हमें भाव विभोर कर देते हैं।
भाषा या बोली हमारे बिचारो के आदान-प्रदान का एक सशक्त माध्यम है। उसके बिना समाज गूंगा है। मानक भाषा के रूप में हिन्दी इस राष्ट्र की राजभाषा, राष्ट्रभाषा और सम्पर्क भाषा है लेकिन जब हम घर में, गांव में अपने विचारों का आदान-प्रदान करते हैं तो हमें क्षेत्रीय बोलियों का आश्रय लेना पड़ता है। इन क्षेत्रीय बोलियों में अनेक का अपना समृद्ध व्याकरण और साहित्य है। उनमें ब्रज, अवधी, बुन्देली, बधेली, निमाड़ी और मालवी को सम्मिलित किया जा सकता है। बुन्देली में समृद्ध साहित्य भरा पड़ा है। ईसुरी की फागें, जगनिक का आल्हखण्ड आदि ग्रन्थ श्रेष्ठतम साहित्य श्रेणी में आते हैं। लेकिन आज के ग्लैमरस और अत्याधुनिक युग में अंग्रेजी की चकाचैंध में हम मानक भाषा हिन्दी को तो भूल ही गये हैं साथ ही क्षेत्रीय बोलियों के प्रति हममे वितृष्णा का भाव, उपेक्षा का भाव जाग्रत हो गया है। यदि भूल से कोई बुन्देली, ब्रज या अन्य क्षेत्रीय बोलियों का प्रयोग कर बैठता है तो भूल का अहसास होने पर वह शर्मिन्दा हो जाता है या अन्य लोग उसकी खिल्ली उड़ाकर शर्मिन्दा कर देते हैं।
श्री श्याम सुन्दर श्रीवास्तव ’श्याम’ द्वारा बुन्देली भाषा में काव्य संकलन का प्रकाशन उनकी भाषा-बोली के प्रति जिजीविषा को दर्शाता है। यह दृढ़ निश्चय ही आने वाले समय में साहित्य संसार को बुन्देली भाषा के अन्य रोचक साहित्य से समृद्ध करेगा।
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डा0 अवधेश चंसौलिया
सहायक प्रध्यापक हिन्दीशासकीय के0आर0जी0 स्वशासी स्नातकोत्तर महाविद्यालय ग्वालियर (म0प्र0)

1 टिप्पणी:

Dr. Mahendra Bhatnagar ने कहा…

समीक्षा पढ़ी। कृति की सही जानकारी मिली। समीक्षक को साधुवाद।
* महेंद्रभटनागर
फ़ोन : 0751-4092908