19 मई 2009

डा0 अशोक गौतम का व्यंग्य - अब कहां जाएं आरके सर!!

मैं ठहरा सकाम कर्मभोगी! इसलिए निष्काम कर्म का स्यापा न कभी मैंने किया, न मुझसे होने वाला, तो नहीं होने वाला! चिकने घड़े पर जितना पानी डालना है डालते रहिए। मैं तो हराम की चटखारे ले ले खाने में विश्वास करता हूं, और भगवान की दया से मिल भी रहा है।
जिस तरह मैं निष्काम कर्म योग पर विश्वास नहीं करता उसी तरह मैं इस बात पर भी विश्वास नहीं करता कि मृत्यु और जीवन पर अभी भी भगवान का हक है। वह जब चाहे इस लोक में हमें भेज दें, जब चाहे इस लोक से उठा लें। कि जीव न अपनी मर्जी से यहां आ सकता है,न यहां से जा सकता है। पर मित्रो! आज की डेट में यहां न भगवान के हाथ में किसी को इस दुनिया में लाना बचा है न इस दुनिया से ले जाना। बेचारे कहीं के! इसलिए न तो मैंने कभी गीता पढ़ने की जरूरत महसूस की और न कभी बेकार में पड़ोस की एक ने मां बनना नहीं चाहा ,तो नहीं चाहा। भगवान बार-बार वहां जीव भेजते रहे और उसने अपने पास उसे फटकने भी नहीं दिया।
मुहल्ले के सज्जन को भगवान ने एक समागम में वरदान दिया,‘अस्सी साल तक जिओ!’ वह बेचारा हफ्ते बाद मंहगाई के लात-घूंसों से मर गया। भगवान ने एक समागम में दूसरे सज्जन को वरदान दिया,‘ जब तक मुंह में तीसरी बार दांत नहीं आ जाते तब तक संसार के सुख भोगो!’ वह बेचारा पांचवें रोज दवाई खाकर मर गया। भगवान ने तीसरे सज्जन को विश्वास दिया,‘ अब प्रेमिका के साथ सौ साल तक ऐश करो।’ वह उसी प्रेमिका के कारण महीने बाद सुसाइड कर गया। अब आप ही कहिए आना-जाना किसके हाथ में है?
वह एक गाड फादर की तलाश में था और वे गाड सन की तलाश में। दोनों को दोनों मिले कर-कर लंबे हाथ! उनके चार लड़कियां थी। पहली हुई तो सबने कहा,‘लक्ष्मी घर आई।’ पुत्र के इंतजार में दूसरी हुई तो घरवालों ने कहा,‘ देवी आई।’ पुत्र के इंतजार में तीसरी हुई तो बाप ने लंबी सांस भर कहा,‘ कन्या आई।’ पुत्र रत्न के चक्कर में चौथी हुई तो मां ने कहा,‘ मनहूस हुई।’
पर उन्हें तो हर हाल में मोक्ष चाहिए था,अपना नहीं तो धर्म का भी चलेगा। कारण, मोक्ष के लिए पुत्र अति आवश्यक होता है। ठीक वैसे ही जैसे स्वर्ग जाने के लिए हरिद्वार का पंडा। जब तक आत्मीय जन आत्मा के लाख न चाहते हुए भी आत्मा को पंडे की उंगली नहीं पकड़ा लेते, कमबख्त आत्मा को स्वर्ग का अति सूधो मार्ग दिखता ही नहीं। आह रे आत्मा! वाह रे आत्मियो!!
उसके गाड फादर की तेरहवीं चल रही थी, ठीक किसी बाक्स आफिस फिल्म की तरह कि थोड़ी दूर सामने मुझे अपरिचित खड़े दिखे। वे न इलाके के लगे न दूर-पार की रिश्तेदारी के। इससे पहले कि मैं उनसे कुछ पूछता, वे मुझसे पूछे,‘ ये किसकी तेरहवीं चल रही है?’
‘ स्वर्गीय आरके की। मेरी तो नहीं लग रही है न?’
‘ये आरके का ही घर है क्या?’
‘था! अब सब उनके गाड सन एसके का है।’ तेरहवीं में व्यस्त उनका गाड सन गुस्से में बोला।
‘ उन्हें सच्ची को तेरह दिन हो गए?’
‘ नहीं, पंडितों से खारिश करवाने को जी कर रहा था, बस इसलिए लगे हैं।’ कहते उनका गाड सन और लाल-पीला हुआ।
‘पर आप कौन?’ मैंने अनमने से पूछा।
‘मैं यमलोक से आया था, यहीं आकर पता चला कि वे... सोचा उन्हें भी साथ लेता चलूं। चक्कर बच जाएगा। अब तो अति हो गई यार!’ यमदूत ने कहा तो गाड सन के मन में तरह-तरह की शंकाएं जगने लगीं।
‘तो क्या अभी उनका समय पूरा नहीं हुआ था?’
‘नहीं, अभी हमारे हिसाब से उनके चार साल और बाकी हैं।’ यह सुन गाड सन को काटो तो खून नहीं। बंदा लौट कर आ गया तो? गया न सारा किया-कराया पानी में। अचानक यमदूत के मोबाइल की घंटी बजी,‘ हां, मैं बोल रहा हूं।’
‘जी सर!’
‘ बीके का घर मिल गया न! आते-आते साथ वाले मुहल्ले के जीके को भी देख लेना। अभी-अभी अखबार से ही पता चला कि सरकार के राजस्व में वृद्धि करने के चक्कर में वह ज्यादा शराब पीकर रात को नाली में गिर गया था।’
‘जी सर!’
‘और हां! वह आरके भी मिल गया।’
‘कहां सर?’
‘लुधियाने। अपनी लड़की के यहां।’
‘ आप वहां क्या करने आए थे सर?’
‘ आफ सीजन के चक्कर में अगली सर्दियों के लिए गर्म कपड़े लेने आ गया था। तुम भी यहीं आ जाओ। फिर रेल से इकट्ठे चल पड़ेंगे।’
‘ ओके सर!...... ठीक है दोस्तो! फिर मिलेंगे,’ कह वह चला गया, मुसकराता हुआ। मैं भी उसके पीछे- पीछे।
वे तीनों जीवों को लेकर रेल में बैठ गए।
‘यार आरके, एक बात बता?’
‘कहो यमराज!’
‘ समय से पहले क्यों मर गए यार? हमारी प्राब्लम भी समझा करो।’
‘ और करता भी क्या! एक बेटी की शादी, दूसरी बेटी की शादी, तीसरी बेटी की शादी, चौथी बेटी की शादी! चौथी बेटी के ससुराल वालों ने दहेज के लिए इतना ज्यादा मुंह खोला कि... मेरे से भरा नहीं गया और मैंने तंग आकर .....’
‘तुम्हें पता है तुम्हारी इस जल्दबाजी के कारण हमें कितनी असुविधा होती है? तुम लोग तो समय से पहले मर समस्याओं से छुटकारा पा लेते हो पर पंगा हमें दे देते हो। समय से पहले मरना हो तो खुद चले आया करो यार!’ यमराज जरूरत से ज्यादा गंभीर लगे।
‘सोचा, बेटी के ससुराल वालों को एक बार फिर मनाने की कोशिश कर लूं। बस, इसी चक्कर में देर हो गई। मर के आना तो आपके ही पास है साहब, और जाना कहां?’ कह आरके के जीव ने अंगूरों का लिफाफा यमराज की ओर बढ़ाया।
‘ तो क्या मान गए वो?’
‘ जो महाराज मान जाएं वे ससुराल वाले कहां!’
‘तो?? शुक्र है यार मैं इस झंझट से दूर हूं।’
‘जितना हो सकता था, मना लिया।’ कह आरके रूआंसा हो गया।
‘तो हार मान ली?’यमराज ने चार जहरीले अंगूर मुंह में डाले।

‘नहीं।’
‘ तो और कोशिश कर लो। अभी तुम्हारे चार साल बाकी हैं। अभी चल पड़े तो तुम्हें चार साल तक तो हम पूछ नहीं पाएंगे, एम्स के मरीजों की तरह बाहर पड़े रहना पड़ेगा।’
‘तो ढूंढ क्यों रहे थे?’ आरके का जीव चैड़ा हुआ।
‘यार मीडिया परेशान करके रख देता है न!’
‘पर अब यहां रहकर करूंगा क्या?’
‘बेटी के ससुराल वालों को देने के लिए कुछ और कमा लो। कानून का दरवाजा खटखटा लो। शायद उसका घर बस जाए।
‘दरवाजा हो तो खटखटाएं महाराज! यहां तो दरवाजा खुद दरवाजा ढूढ रहा है।’
‘यमदूत!’
‘जी सर!’
‘संसद का नंबर मिलाओ। उनसे कहो कि अगर देश में ऐसी ही कानून व्यवस्था रखनी है तो हम एक यमलोक यहीं बना लेते हैं। वैसे भी डीजल -पेट्रोल के दाम आसमान छू रहे हैं। यमलोक का बजट हिल गया है। जाओ आरके, यमलोक की सड़कों पर पड़े रहने से बेहतर है अपने घर में रहो। समस्याओं से लड़ो। लड़कर अमरत्व प्राप्त करो।’ कह यमराज ने आर के का जीव अगले रेलवे स्टेशन पर उतार दिया।
.........सर! अब कहां जाएं आरके सर!!

-----------------------
डा0 अशोक गौतम
द्वारा -संतोष गौतम, निर्माण शाखा,
डा0 वाय0 एस0 परमार विश्वविद्यालय,
नौणी, सोलन-173230 हि.प्र.

कोई टिप्पणी नहीं: