05 मई 2009

डॉ0 अनिल चड्ढा की ग़ज़ल

मुश्किल जीना अब होता जा रहा है,
सांस भी घुट-घुट के हमको आ रहा है ।


जानवर को मिल जाता है ऐशो-आराम,
इंसा कूड़े से भी चुन कर खा रहा है ।

बस गईं चारों तरफ घनी बस्तियाँ,
तन्हा खुद को हर शख्स पा रहा है ।

साफ गोई तो उसे मंजूर न थी,
पाठ मुझको झूठ का सिखला रहा है ।

एहसानात चंद क्या उसने कर दिये,
बेवजह वो जुल्म मुझपर ढा रहा है ।

उदासी पहले ही कुछ कम न थी,
गीत दर्द के कोई क्यों गा रहा है ।

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डा0अनिल चड्डा
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1 टिप्पणी:

abhivyakti ने कहा…

आप की रचना प्रशंसा के योग्य है . लिखते रहिये
चिटठा जगत मैं आप का स्वागत है

गार्गी
www.abhivyakti.tk