26 अप्रैल 2009

डा0 जयजयराम आनन्द की कविता - आंखों में तिरता है गाँव

आंखों में तिरता है गाँव
सपनों में दिखता है गाँव

अलस्सुव्ह ही खाट छोड़ना
आलस की जंजीर तोड़ना
दुहना गैय्या भैस बकरिया
हार खेत से तार जोड़ना
हल कंधों पर ,चलते पाँव
हार खेत में दिखता गाँव

त्योहारों के रंग अनूठे
भेदभाव के दावे झूठे
दुःख में चीन भीत बन जता
सुख के राग फाग शुचि मीठे
वारी पर देता है दाँव
महा रास बन खिलता गाँव

अम्मा बापू दादा दादी
बसता उनमें काबा काशी
शहरी आवोहवा न पचती
लगता कूड़ा-करकट बासी
गड़ी नाल वो रुचता ठाँव
बातों में बतियाता गाँव
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डा0 जयजयराम आनन्द
भोपाल

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