03 अप्रैल 2009

डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव की पुस्तक - पर्यावरण : वर्तमान और भविष्य


आज से डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव की ‘पर्यावरण’ पर आधारित पुस्तक ‘‘पर्यावरण: वर्तमान और भविष्य’’ का प्रकाशन श्रृखलाबद्ध रूप से किया जा रहा है। यह पुस्तक निश्चय ही पर्यावरण संरक्षण के प्रति कार्य कर रहे लोगों को, विद्यार्थियों को लाभान्वित करेगी।

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संक्रमण काल के दौर से गुजरता आज का पर्यावरण
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हमारी पृथ्वी ब्रह्माण्ड के सात प्रमुख ग्रहों में सबसे सुन्दर एवं आकर्षक है, पृथ्वी की इस सुन्दरता एवं आकर्षण के पीछे इस पर विद्यमान जीवन का चक्र है। पृथ्वी में जीवन की विद्यता के पीछे उसमें व्याप्त पर्यावरण है। अर्थात् पृथ्वी पर पर्यावरण का होना ही जीवन का आधार माना जाता है क्योंकि जीवन रूपी सुन्दर सृष्टि की रचना पंच तत्व पृथ्वी, जल, वायु, आकाश और अग्नि से हुई है। इन्ही पंच तत्वों से सम्पूर्ण जगत की सृष्टि चल रही है और ये संसार को जीवन व शक्ति प्रदान करते हैं। इन्हीं पंच तत्वों से मिलकर पर्यावरण की रचना हुई है अर्थात् पर्यावरण हमारी सम्पूर्ण मानवता के जीवन का आधार स्तम्भ है। यह सूर्य की किरणें, अग्नि, वायु और विविध पेड़, पौधे, वृक्ष, वनस्पतियाँ एवं सुन्दर पुष्प जहाँ प्रकृति के अनुपम सौन्दर्य के अंग हैं वहीं ये जीने योग्य स्वस्थ्य वातवारण उपलब्ध कराने के साथ-साथ मनुष्य को आवश्यक मूलभूत जरूरतों रोटी, कपड़ा, मकान, कच्चा माल आदि भी उपलब्ध कराता है। वर्तमान की वैज्ञानिक प्रगति, आनुवंशिकी उन्नति उद्योग, कृषि तथा प्रौद्योगिकी विकास आदि की उपलब्धता प्रकृति से ही सम्भव हो पायी है, आज जब हम इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर गये हैं और आगे बढ़ने की होड़ में विगत एक शताब्दी में औद्योगिक विकास के उद्देश्य से मानव ने प्राकृतिक संसाधनों का बड़ी निर्ममता, क्रूरता तथा अविवेकपूर्ण तरीके से इसका शोषण किया है। पारिस्थितिक संसाधनों के इस अंधाधुंध दोहन तथा शोषण का नतीजा यह हुआ कि हमारा प्राकृतिक श्रृंखलाओं का यह ढाँचा ही असंतुलित होता जा रहा है। पर्यावरण के इस असंतुलन के पीछे तीन तत्वों की प्रमुखता पायी जाती है। उपभोक्तावादी संस्कृति, जनसंख्या विस्फोट तथा निर्वनीकरण। उपभोक्तावादी संस्कृति से ग्रसित मानव प्राकृतिक संसाधनों का सुपर उपभोक्ता हो गया है। अपनी धुन में रमा व्यक्ति यह सब भूल गया है कि प्रकृति की भी अपनी सीमायें एवमं क्षमताएँ हुआ करती हैं परन्तु मानव ने इस चिन्ता से दूर रहकर प्रकृति का जरूरत से ज्यादा दोहन किया जिसके परिणामस्वरूप सूखा, बाढ़, महामारी, भूकंप, भूस्खलन, ओजोन परत का नष्ट होना, ग्लोबल वार्मिंग, अकाल जैसी अनगिनत प्राकृतिक आपदाएं नित्य विकराल रूप धारण करती जा रही हैं।
पर्यावरण की प्रतिध्वनि आज भूमण्डलीय समस्या के रूप में विद्यमान हो गई है। सामाजिक और भौगोलिक दृष्टिकोण के नजरिये से देखें तो वह व्यक्तिवादी से विश्वव्यापी हो गई है। अर्थात् पर्यावरण के बढ़ते विस्तार को देखते हुए इसे सर्वव्यापी मानना ज्यादा सार्थक होगा क्योंकि अब यह जलमंडल, जीवमंडल और वायुमंडल की सीमा को पार करती हुई अंतरिक्ष यानी ब्रह्माण्ड मंडल में पहुँच गई है। पर्यावरण की इस समस्या के पीछे एवं इस स्थिति तक पहुँचाने में किसकी अग्रणी भूमिका रही है यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है। इतना स्पष्ट है कि मानव ने खुद इस समस्या को जन्म दिया इसलिए पर्यावरण समस्या के जनक होने के नाते मानव का दायित्व बनता है कि उसका समाधान भी वही करे।
आज मानव जाति के लिए अपने इतिहास का सबसे कठिन दौर चल रहा है क्योंकि मनुष्य के साथ प्रेममूलक सम्बन्धों में आ रही गिरावट और बढ़ती संवेदनहीनता के दायरों से बाहर निकलकर पुनः प्रकृति की ओर वापस लौटना होगा। यही वर्तमान में पर्यावरण की समस्या का स्थायी समाधान है या यूं कहा जाये कि प्रकृति का संरक्षण ही मानव के दीर्घजीवी होने की गारंटी है। अतः प्रकृति के संरक्षण को प्राथमिक लक्ष्य बनाकर किया गया विकास ही दीर्घकाल तक जारी रह सकता है। वास्तव में वही विकास सतत् हो सकता है जो प्रकृति के अनुकूल हो। यदि प्रकृति के इस असंतुलन को ठीक करना है साथ ही हमें सम्पूर्ण मानवता को मृत्यु की ओर रोकने से बचाना है तो पृथ्वी पर रहने वाले प्रत्येक नागरिक को जागरूक होना पड़ेगा। किसी एक व्यक्ति, एक देश, एक समुदाय, एक संस्था विशेष के जागरूक होने मात्र से पर्यावरण को बचा पाना असम्भव होगा। हमें इस विकराल एवं भयावह स्थिति के प्रति सचेत एवं जागरूक होना पड़ेगा। इसके लिए पर्यावरण शिक्षा सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर सकती है। पर्यावरण शिक्षा से तात्पर्य पर्यावरण संरक्षण में जन सहभागिता बढ़ाना है। वास्तव में देखा जाए तो किसी भी कार्य या उद्देश्य के सफल होने की संभावना तब अधिक हो जाती है जब धरातलीय स्तर पर उसका व्यापक जनाधार हो क्योंकि बिना जनभागीदारी के पर्यावरण संरक्षण की बात करना नक्कारखाने में तूती की आवाज सिद्ध होगी। आज पर्यावरण की समस्या व इसके संरक्षण की दिशा में चिंतन व सार्वभौमिक सोच का होना लाजिमी हो गया है।

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सम्पर्कः
वरिष्ठ प्रवक्ता: हिन्दी विभाग
दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय
उरई-जालौन (उ0प्र0)-285001

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लेखक परिचय –



युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ’ की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डा0 वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चैक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डा0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानो से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियां (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।

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